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न पूछ कब से ये दम घुट रहा है सीने में / शमीम जयपुरी

न पूछ कब से ये दम घुट रहा है सीने में
कि मौत का सा मज़ा आ रहा है जीने में

न जाने क्यूँ ये तलातुम डुबो नहीं देता
कि नाख़ुदा भी नहीं अब मिरी सफ़ीने में

क़दम क़दम पे बचाया है ठोकरों से मगर
ख़राश आ ही गइ्र दिल के आबगीने में

महक रही है सबा सुब्ह से न जाने क्यूँ
नहा के आई है शायद तिरे पसीने में

‘शमीम’ साहिल ओ कश्ती से कुछ उम्मीद न रख
कोई वक़ार नहीं इस तरह से जीने में