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न मिलता दर जो तेरा तो मैं दर दर ही भटक जाती / बेगम रज़िया हलीम जंग

न मिलता दर जो तेरा तो मैं दर दर ही भटक जाती
अँधेरे में फ़ना होती बुतों की दास कहलाती

न क़ुरआँ ही मुझे मिलता न ईमाँ ही मुझे मिलता
बजाए जन्नतुल-फ़िर्दोस दोज़ख में जगह पाती

न काबा सामने होता न तैबा सामने होता
जहाँ में कुफ्र और इल्हाद ही होते मेरे साथी

वज़ू करती न ज़मज़म से न होती पाक-तीनत मैं
न मेरे हाथ में उस पाक काबा की रिदा आती

न वहदत मुनकशिफ़ होती न मिलता नूर वहदत का
हुज़ूर-ए-पाक की मुझ को शफ़ाअत भी न मिल पाती

बहुत मश्कूर हूँ तेरी बनाया मोमिन मुझ को
के इस बे-नूर हस्ती के दिए को बख़्श दी बाती