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न वो ज़बान की शोखी मेरे बयान में है / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी

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न वो ज़बान की शोखी मेरे बयान में है
न अब हुस्ने समाअत किसी के कान में है

बदल न दे वो कहीं रुख तेरे सफीने का
वो मुख़्तसर सा जो सुराख बादबान में है

मेरी पसंद की गुडिया नज़र नहीं आती
सुना हर इक खिलौना तेरी दूकान में है

ये कह के वार दुबारा किया है कातिल ने
ज़रा सी जान अभी इस लहूलुहान में है

रहे वफ़ा पे मेरे सिर्फ नक़्शे पा ही नहीं
मेरा लहू भी मेरे पाँव के निशान में है

 अतीत बीत चुका है और भविष्य अनदेखा
जो ज़िन्दगी की हकीकत है वर्तमान में है

न जाने कौन सी आंधी बिखेर के रख दे
हर एक शख्स यहाँ रेत के मकान में है