न सियो होंठ, न ख़्वाबों में सदा दो हम को
मस्लेहत का ये तकाज़ा है, भुला दो हम को
हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब
हां अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं, तो मिटा दो हम को
शोरिश-ए-इश्क़ में है, हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की, सज़ा दो हम को
मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है, सहरा हो कि शहर
बैठ जाएंगे जहां चाहे, बिठा दो हम को