भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न हन्यते / उज्ज्वल भट्टाचार्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनी बालकोनी से 
बाहर फैली हरियाली देखता हूँ । 

कभी न कभी 
मुझे भी हरियाली का हिस्सा बनना है, 

जो 
कड़ी धूप में 
या बर्फ़ के नीचे  
मुरझा जाने के बाद 

खिल उठेगा 
बार-बार ।