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न होने के वक़्त की तरह / श्रीकान्त जोशी

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नहीं होने के बाद जिस तरह होता है आदमी
नहीं होता उस तरह होने के वक़्त।
खुल जाता है जाने कितने बंधों और जोड़ों से
और जोड़ देता है परिचितों को परिजनों को
ज़रूरत-बेज़रूरत के
मोहों और मोड़ों से।
होने के मौसम में
नहीं होने की तरह
देख सकना
वास्तविक देखना है,
अपनी रोटियाँ सब तोड़ते हैं
सब बखानते हैं शेखियाँ अपनी समय-असमय
कम-अधिक हम सब
मामूली क़िस्म के होते हैं
पर ज़िन्दगी में इतनी ग़ैरज़िम्मेदारी किस काम की?
किसी को पहचान सकना और
छूकर देख पाना अपने जिस्म की तरह
किसी की हक़ीक़त का करना बयान
कभी बन कर सुबह का गान
कभी प्रयाण किसी शाम का
वास्तविक ज़िन्दगी की है शुरुआत।
किसी का कर्ज़ लौटा देने की तरह है
यह असाधारण-सी साधारण बात।
नहीं
भले किसी छोटे-मोटे इतिहास में भी न लिखे
मगर कोई लिखे तो इतिहास ख़ुद रहेगा अहसानमंद
होने के वक़्त जो करता रहा आदमी को
न होने के वक़्त की तरह पसन्द।