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पंगु मुझे करके / रामगोपाल 'रुद्र'

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पंगु मुझे करके कहते हो, शिखर चढ़ो!
एक नहीं औजार;
और तब कहते हो, बैठे क्यों हो जी?
गढ़ो, गढ़ो!

मालिक मेरे, यही तुम्हारा न्याय?
व्यय की तो कौड़ी-कौड़ी पर कड़ी आँख है;
रत्‍ती-रत्‍ती कंचन पर है कड़ी कसौटी;
बात-बात पर अग्निपरीक्षा, लोक के लिए;
पर यह भी न गिनते हो कभी
कि तुमने अपने इस गुलाम को
सम्बल ही क्या दिए?
और, कुटी की है कुल कितनी आय?
पर कहने में न चूकते
तुम कितने निरुपाय!
देख-देखकर भी लोगों को बढ़ते,
बढ़ने की लालसा नहीं जगती क्या?
उठो, बढ़ो जी, बढ़ो!

सेनाप मेरे!
ऐसी विकट भयानक यह रणभूमि!
कोसों एक न छाँव;
भरी है दलदल। दूरबीन तो दूर
मानचित्र भी पास नहीं सैनिक के,
और, न कोई यान;
यान क्या सुलभ न मृदु पदत्राण।
लेकिन, यह आदेश
करो या मरो!