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पंचतत्व / मनीष मूंदड़ा

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मैं धरा से हूँ
इस धरती का अंश
प्रतिनिधित्व करता अपनी माटी का
मैं, तुम...हम सब
अपने संस्कारों की जड़ो की अटलता लिए

मेरे अंदर एक आकाश बसता हैं
ठीक वैसा ही, जैसा तुम्हारे अंदर।
अनन्त विस्तार लिए
विस्तृत और आलौकिक स्वतन्त्रता लिए
शून्यता और शुक्ष्मता कि अभिन्नता लिए

वायु-सी जीवंतता
और स्वच्छंदता लिए
मैं अपने सपनो की उड़ान भरता
ठीक तुम्हारी तरह
उन्मुक्त विचारों का सृृजनहार हमारा यह मन
विजय-पताका लहराता

मैं अग्नि हूँ
आग की तपिश मेरे, तुम्हारे दिल में बसती है
मैं तप हूँ, मैं तप से हूँ
तुम भी वही हो
तुम और मैं प्रज्वलित है, अग्नि से
दुर्लभ ज्योति से
अपनी सतरंगी आभा बिखेरते

जल-सा ठहराव है मुझमें और तुममें
एक अघाढ़, अदृश्य शक्ति लिए
हमारे विचारों को उद्वेलित करता
समुद्र-सी गहराइयाँ समेटे
हमारी, तुम्हारी ये आत्मा अक्षय हैं, असीम हैं

मैं और तुम
इन तत्वों से बने
अनन्त शक्तियों के स्रोत हम
फिर क्यूँ हीन हों, क्षीण हों हम
हम में हैं ब्रह्माण्ड
विस्तृत, विराट
आओ प्रबल बने, आओ हम सबल बने।