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पंचदश प्रकरण / श्लोक 11-20 / मृदुल कीर्ति

अष्टावक्र उवाचः
तू महोदधि, विश्व रूप तरंग वृति आप्त है,
पर जगत की वृद्धि क्षय से आत्मा नहीं व्याप्त है.-----११

हे तात ! तुम चैतन्य, तुमसे भिन्न जग किंचित नहीं,
क्या त्याज्य और क्या ग्राह्य, इसकी कल्पना समुचित नहीं.-----१२

तू एक निर्मल अव्ययं चैतन्य रूप आकाश में,
कहाँ जन्म, कर्म, अहम कहाँ, तू आत्म वत स्व प्रकाश में.------१३

क्या कंगना, क्या घूँघरू, सब स्वर्ण के ही प्रकार हैं,
तू आत्मा उसमें भी तेरे भिन्न -भिन्न आकार हैं.-------१४

यह मैं हूँ और मैं यह नहीं, सब भ्रमित मन के विकल्प हैं,
सब आत्मा हैं अभिन्न इनमें, भिन्नता नहीं अल्प है.----१५

परमार्थतः तू एक, तुझसे अन्य कोई न ज्ञान है,
संसार, संसारी, असंसारी भ्रमित अज्ञान है.------१६

संसार भ्रम और कुछ नहीं, जिसे ज्ञात वह चैतन्य है,
बहु वासनाओं से रहित, वह शांत व्यक्ति अनन्य है.-----१७

भव उदधि में तू ही था, और है रहेगा एक तू,
मोक्ष बंधन हीन, सुख उन्मुक्त विचरेगा एक तू.------१८

संकल्प और विकल्प से, चैतन्य अब तू चित्त को,
क्षोभित न कर, आनंद मन, सुख रूप में पा नित्य को ------१९

चैतन्य सत्ता मुक्त रूप हो, आत्मा एकमेव ही,
फ़िर ध्यान चिंतन मनन किसका, आत्म भू स्वयमेव ही.-------२०