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पंद्रह अगस्‍त / गिरिजाकुमार माथुर

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आज जीत की रात
पहरूए सावधान रहना!

खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना
प्रथम चरण है नये स्‍वर्ग का
है मंजिल का छोर
इस जन-मंथन से उठ आई
पहली रत्‍न हिलोर
अभी शेष है पूरी होना
जीवन मुक्‍ता डोर
क्‍योंकि नहीं मिट पाई दुख की
विगत सांवली कोर
ले युग की पतवार
बने अंबुधि महान रहना
पहरूए सावधान रहना!

विषम श्रृखलाएं टूटी हैं
खुली समस्‍त दिशाएं
आज प्रभंजन बनकरचलतीं
युग-बंदिनी हवाएं
प्रश्‍नचिन्‍ह बन खड़ी हो गईं
यह सिमटी सीमाएं
आज पुराने सिंहासन की
टूट रही प्रतिमाएं
उठता है तूफान, इंदु तुम
दीप्तिमान रहना
पहरूए सावाधान रहना!

उूंची हुयी मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है
शत्रु हट गया, लेकिन उसकी
छायाओं का डर है
शोषण से मृत है समाज
कमजोर हमारा घर है
किंतु आ रही नई जिंदगी
यह विश्‍वास अमर है
जनगंगा में ज्‍वार,
लहर तुम प्रवहमान रहना
पहरूए, सावधान रहना!