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पकड़ चाँद को यदि मैं पाता / श्रीनाथ सिंह

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पकड़ चाँद को यदि मैं पाता!
आसमान की ओर दिखाता।
लख तारों का मन ललचाता।
पास हमारे आते ज्यों ज्यों उन्हें पकड़ता जाता।
फिर मैं एक अनोखी आला
गुहता उन तारों की माला।
सबके नीचे उसी चंद्रमा को गुह के लटकाता !
उसे छिपा कर रखता दिन में।
रगड़ रगड़ धोता छिन छिन में।
मैल चंद्रमा का मिट जाता चकाचौंध हो जाता।
होती शाम रात जब आती।
अंधकार की बदली छाती।
चुपके से वह हार पहिन मैं बेहद धूम मचाता।
अम्मा मुझे देख घबराती।
मुन्नी मेरे पास न आती।
तरह तरह की बोल बोलियाँ सब को खूब छकाता।
अगर जान वे मुझको पाते।
मिलकर तुरत पकड़ने आते।
हार उतार जेब में रखता अन्धकार हो जाता।
फिर जो मेरा कहना करता
मुझसे हर दम रहता डरता।
कभी कभी उसको भी खुश हो हार वही पहनाता।