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पकते हुए माँस की गहरी गन्ध में / दिलीप चित्रे

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पकते हुए माँस की गहरी गन्ध में
बदहवास अन्धेपन में
मैनें चाटा तुम्हें
भोग की जीभ और भय की अँगुलियों से
मेरी यादों में तुम
ब्रेल में लिखी क़िताब की रोशनी पर
हम दोपहर के खाली पालने में डोलते रहे
झूलते रहे रात के आर-पार
‘ओ मेरे अविश्वासी प्रेमी’ तुमने कहा था,
आकाश मेरे लहू में खुल चुका है

अब मैं पाता हूँ कि प्रेम ने मुझे कुछ नहीं सिखाया
मैं ख़ुद से ही मुक्त नहीं हो सकता
मेरे संवेग हिंस्र पशु हैं बिना जंगल के
मेरी आत्मा एक पंछी बिना आकाश के