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पगडंडियाँ / मनोज श्रीवास्तव का नाम बदलकर पगडंडियाँ (कविता) / मनोज श्रीवास्तव कर दिया गया है
'''पगडंडियाँ '''
(i)पगडंडियों को वक्ष तले दबोचेचित लेटी हैं सड़कें जिनकी बांहें थामे चतुर्दिक झूल रहे हैं विकराल शहर(ii)बेमुरव्वत राजमार्गों परपेंग मारते आसमान में सिर धंसातेदसानन प्रासाद,बादल वर्तमान के तकियों धधकते सीने पर आराम फरमाते राजभवनपैर जमाए पगडंडियों परआज भी खड़े शीतल अतीत हैं पगडंडियां मस्त अलमस्त! (iii)गांव और शहर को गले मिलाती पगडंडियों के सिवाय कोई और आधार तलाशती संसद अपनी जड़ जमाने की उहापोह में आज भी लेटी है पगडंडियों की सेज जिन पर (iv)पगडंडियाँ पत्थरों तलेदबी कराह रही अंकित हैं पर, घुट कर मरी नहीं हैं,उबसतेभूले-उबसते बिसरे पुरखों के उसी तरह घडियाँ गिन रही हैं जिस तरह इस दमघोंटू आबोहवा मेंचुनिन्दा संस्कृतियाँअभी भी सुबक रही हैं, आयातित बदतमीज़ियों कीउफनतीइबारती पद-लरज़ती बाढ़ में चिह्न डूबती-उतराती जिन्हें अंगारी सड़कों ने सिर उचका-उचका कर आक्सीज़न तलाश रही हैं (v)गगनचुम्बी विकास की नींव बनी पगडंडियाँ ढँक दिया हैअपने कंकाली कंधों परदानवी जिस्म के नीचेथामे हुई हैं और जकड़ लिया है फालिसग्रस्त सडे-गले अपाहिज लोकतंत्र की लाशनुमा गठरी(vi)जिन पगडंडियों की पीठ पर भोंदू-गँवार झूमाते-गातेहोकर सवार पहुँचे थे काले-कलूटे राजमार्गों पर,खींस निपोरतेखांसते-खखारतेउजले कपड़े पहन उतारे थे राजसभाओं में बने थे लाट साहब संसद में,उन्हें वे वैसे ही भूल चुके हैंजैसे हीरो बनने गांव अपनी हत्यारी बांहों से भागा बेटाशोरबेदार बम्बईएपन मेंऔर हमारे झुलसे पाँव माँ के दूध का फीकापन भूल जाता है(vi)उन भूले-भटकों को घर लौटानेउनके कदमों-निशां टटोलती पगडंडियाँ शहर जोहने निकाली जोह रहे हैं,वही शीतलतापर, अकेली फिल्म देखने गई जो बमुश्किल मिल सकेंगे सामूहिक बलात्कृत हुईऔर लोकलाज किताबों के भय से नदी-नाबदानों किन्हीं पौराणिक नगरों में समा गईदुधमुंही लोंडिये की तरह वे भी गुम हो गई हैंया, अखबारों स्मृतिलोक के हाशिए कीकिन्हीं उपेक्षित खबर बन गयी हैं गाँवों में (viii)वर्तमान के धधकते सीने परअतीत की वट-छाया जहां पहुंचने को हमदम राहें नहीं हैं--ये बूढी-तज़ुर्बेदार पगडंडियाँ,जबकी लोग भूल चुके हैंअपने पुरखों के पद-चिह्नजो दफन पगडंडियों की छाती पर अक्षरश: अंकित हैं आज दिक् सूचक कोई ध्रुवतारा भी ऐतिहासिक दस्तावेज़ों की तरह. नहीं है
(साहित्य अमृतपर, सम्पादक विद्यानिवास मिश्र, वर्ष १९९८)हमें विश्वास है कि किसी दिन पगडंडियों की मुस्कराहटसड़कों पर उतरा आएंगी और बता देंगी उनका पता.
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