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पगडंडी से सड़क तक / माया मृग

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पगडंडी
रोज़ कराहती है।
सुबह से शाम तक
किसी आहट की इंतज़ार में
अपने टेढ़े-मेढ़े
कच्चे-गलते शरीर को
रोज़ निहारती है।
पर नहीं आता कोई
काँधे पर हल रखे
गुनगुनाता,कूदता-फाँदता
कोई भी रसीला क्षण!
कोई भी पल
नहीं देता उसे सुवासित कल की गंध!
विरहणी-सी
रात-रात
भर करवटें बदलती है-
इसे देख अब कोई नहीं कहता
पगडंडी चलती है।

सड़क
रोज़ चीख़ती है।
सुबह से शाम तक
भीड़ के रेले, वाहन-ठेले
हॉर्न के शोर
और कील वाले बूटों की
ठक-ठक
अपनी छाती पर झेलते
भीतर ही भीतर टीसती है।
पर नहीं आता
कोई भी पल,जब वह मिल ले
अकेली अपने आप से।
धूल-धूप-धुआँ
सूँघते-फाँकते
नसें तनने लगी हैं
सब कहते हैं
सड़क
बहुत चलने लगी है!