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"पढ़ी हथेली आपकी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर

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हर रेखा के छोर तक, उमगा था अनुराग।
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बालसुलभ मुस्कान में, छपे हज़ारों गीत ।
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सब गीतों का सार था, ‘तुम मेरे मन मीत’॥
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तन -मन जब डगमग करे,कसकर पकड़ो हाथ।
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कुछ भी तो माँगा नहीं, न धन, नहीं सम्मान।
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उनके अधरों पर खिले,सदा मधुर मुस्कान।।
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जीवन की मरुभूमि में,जब बरसे अंगार।
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मुझे बचाने आ गए, बन तुम सुखद बयार।।
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वासन्ती हर पल हुआ,पाकर तेरा प्यार।।
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घिरी घटाएँ ताप की,बाँधो ऐसी डोर।
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प्रभुवर ! मेरे प्रेम को,देना सुखमय भोर ।।
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हर लेना हर पीर को,सुख ले आना पास।
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शीतल मन -मंदिर करो,तुम पर ही विश्वास।।
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धन, दौलत माँगा नहीं , न यश , नहीं सम्मान।
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देना मन के मीत को ,केवल सुख का दान।।
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नर -नारी के भेद से,ऊपर होता प्यार।
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भोर- साँझ सब एक हैं,उजियारे के द्वार।
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खुशबू  हर पल आ सके,खोले थे सब द्वार।
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पत्थर बरसे हर घड़ी,घायल हर मनुहार।।
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जब तक तन में प्राण हैं,जीवन की है आस।
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सभी द्वार पर बाँटना,सब दिन हमें उजास।।
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पुर्ज़ा-पुर्ज़ा ज़िन्दगी,होती है दिन रात ।
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तुम बोलो कितना सहें,हर पल के आघात।।
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निर्मल नाज़ुक काँच-सा,अपना मन था यार।
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सहता कैसे हर घड़ी, पाषाणों के वार।।
  
 
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21:00, 14 मई 2019 के समय का अवतरण


116
रहे उम्र भर संग में , मन से कोसों दूर।
साथ हुए ना दो घड़ी,किसका कहें क़ुसूर।।
117
पढ़ी हथेली आपकी ,जाना अपना भाग
हर रेखा के छोर तक, उमगा था अनुराग।
118
बालसुलभ मुस्कान में, छपे हज़ारों गीत ।
सब गीतों का सार था, ‘तुम मेरे मन मीत’॥
119
ग़म की चादर फेंक दो , जब अपने हों साथ।
तन -मन जब डगमग करे,कसकर पकड़ो हाथ।
120
कुछ भी तो माँगा नहीं, न धन, नहीं सम्मान।
उनके अधरों पर खिले,सदा मधुर मुस्कान।।
121
जीवन की मरुभूमि में,जब बरसे अंगार।
मुझे बचाने आ गए, बन तुम सुखद बयार।।
122
रोम- रोम को सींचती, वाणी की जलधार।
वासन्ती हर पल हुआ,पाकर तेरा प्यार।।
123
घिरी घटाएँ ताप की,बाँधो ऐसी डोर।
प्रभुवर ! मेरे प्रेम को,देना सुखमय भोर ।।
124
हर लेना हर पीर को,सुख ले आना पास।
शीतल मन -मंदिर करो,तुम पर ही विश्वास।।
125
धन, दौलत माँगा नहीं , न यश , नहीं सम्मान।
देना मन के मीत को ,केवल सुख का दान।।
126
नर -नारी के भेद से,ऊपर होता प्यार।
भोर- साँझ सब एक हैं,उजियारे के द्वार।
127
खुशबू हर पल आ सके,खोले थे सब द्वार।
पत्थर बरसे हर घड़ी,घायल हर मनुहार।।
128
जब तक तन में प्राण हैं,जीवन की है आस।
सभी द्वार पर बाँटना,सब दिन हमें उजास।।
129
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा ज़िन्दगी,होती है दिन रात ।
तुम बोलो कितना सहें,हर पल के आघात।।
130
निर्मल नाज़ुक काँच-सा,अपना मन था यार।
सहता कैसे हर घड़ी, पाषाणों के वार।।