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पढ़ रहा हूँ वेदना का व्याकरण मैं / आलोक यादव

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पढ़ रहा हूँ वेदना का व्याकरण मैं
हूँ समर में आज भी हर एक क्षण मैं

सभ्यता के नाम पर ओढ़े गए जो
नोच फेकूँ वो मुखौटे, आवरण मैं

रच रहा हूँ आज मैं कोई ग़ज़ल फिर
खोल बाँहें कर रहा हूँ दुःख ग्रहण मैं

ये निरंतर रतजगे, चिंतन, ये लेखन
कर रहा हूँ अपनी ही वय का क्षरण मैं

पीछे - पीछे अनगिनत हिंसक शिकारी
प्राण लेकर भागता सहमा हिरण मैं

शक्ति का हूँ पुंज, एटम बम सरीखा
देखने में लग रहा हूँ एक कण मैं

है मेरी पहचान, है अस्तित्व मेरा
कर नहीं सकता किसी का परिक्रमण मैं

ब्रह्म का वरदान हूँ, नूरे - ख़ुदा हूँ
व्योम का हूँ तत्त्व, धरती का लवण मैं

क्या जटायू से भी हूँ 'आलोक' निर्बल
देखता हूँ मौन रह सीता हरण मैं