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पतझड़ का षड़यंत्र फल गया / ईश्वर करुण

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पतझड़ का षड़यंत्र फल गया
हिया जुड़ाया काँटों का
मन के ऊपर राज हो गया
निर्वासित सन्नाटों का

जाने क्या कह दिया तुम्हें , उस दिन मैं ने कचनार तले
कोस-कोस उस एक घड़ी को कितने दिन और शाम ढले
अब तक खुला नहीं ताला
क्यों तेरे हृदय कपाटों का

भँवरे तो प्रतिद्वन्द्वी थे ही , फूल भी बैरी बन बैठे
तान भृकुटियाँ तितली भागी ,कोयल -पपिहे तन बैठे
नौकाएँ विद्रोह कर गयीं,
साथ दे दिया घाटों का

मान भी जाओ ,छोड़ भी दो तुम ओढ़े हुए परायापन
अच्छा नहीं कि जेठ के हाँथों बेचें हम अपना सावन
मिले प्रीत तो खिल जाता है,
तन -मन मूर्ख-चपाटों का