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पतित पीक / काशीकान्त मिश्र 'मधुप'

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नहि घृणा करू बुझि पतित पीक।
ताम्बूल तेज-तरूआरि-दशन-
सँ चिरा हृदय, रस-लाल अपन-
शोभाक हेतु जे कैल दान,
तकरे पवित्र हम छी प्रतीक।।
मुख-निधिमे उठल तरंग तरल,
नहि रहि सकलहुँ चुपचाप पड़ल।
आननमे पावन, भूमिलग्न
होइतहि अपूत, की उचित थीक।
हम दशन बसन केर अनुरंजक
जे रसिकक पूर्ण मनोरंजक।
जधरस्थ हमर बुध करथि पान,
अधरस्थ देखि पुनि हँटब ठीक।।
नन्दनवन-विहरणशील सुरक
पितरक अथवा नृप भूमिसुरक
नैवेद्यक रस छी हमहि मुख्य;
तें ई अपमान न करब नीक।।
स्वार्थी संसारक केहन नियम,
उपकृतो उपद्रव करै न कम
भूषित भै भूशित कैल अहाँ,
ई रीति नीति नहिएँ सुधीक।।
नहि पतन एक दिन ककर हैत ?
पृथ्वीक कोरमे के न जैत ?
तें सकल वस्तुमे एक भाव
राखक थिक, गीता पढु सटीक।।