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पत्थरों का मुंग़नी / 'वहीद' अख़्तर

मुतरिब-ए-ख़ुश-नवा ज़िंदगी के हसीन गीत गाता रहा
उस की आवाज़ पर अंजुमन झूम उट्ठी

उस ने जब ज़ख़्म-ए-दिल को ज़बाँ बख़्श दी
सुनने वालों ने बे-साख़्ता आह की

इश्क़ के साज़ पर जब हुआ ज़ख़्मा-ज़न
शोर-ए-तहसीं में ख़ुद उस की आवाज़ दब सी गई

मुतरिब-ए-ख़ुश-नवा फिर भी तन्हा रहा
तिश्नगी-ए-मशाम उस को बाद-ए-सबा की तरह गुल-ब-गुल ले गई

कासा-ए-चश्म ने परतव-ए-गुल भी पाया नहीं
दर्द उस का किसी महरम-ए-दर्द के वास्ते

दर-ब-दर शहर-दर-शहर फिरता रहा
दाद ओ तहसीं के हँगामा-ए-ज़ौक़-कश में उसे

हर तरफ़ से मलामत के पत्थर मिले
मुतरिब-ए-ख़ुश-नवा पत्थरों से पटकता रहा अपना सर

पत्थरों को ज़बाँ तो मिली पर तकल्लुम नहीं
पत्थरों को ख़द-ओ-ख़ाल-ए-इंसाँ मिले दौलत-ए-दर्द-ओ-ग़म कब मिली

पत्थरों को हसीं सूरतें तो मिलीं दिल नहीं मिल सका
पत्थरों को मिले पाँव पर एतिमाद-ए-सफ़र कौन दे

पत्थरों को मिले हाथ पर अज़्म-ए-तीशा-ज़नी कौन दे
संग सुनते हैं लेकिन समझते नहीं

देखते हैं मगर फ़र्क करते नहीं
बात करते हैं महसूस करते नहीं

टूट सकते हैं लेकिन पिघलते नहीं
गर्द बन कर ये उड़ जाएँ साँचों में ढलते नहीं

मुतरिब-ए-ख़ुश-नवा पत्थरों से पटकता रहा अपना सर
मुतरिब-ए-ख़ुश-नवा पत्थरों को सुनाता रहा दर्द-ए-दिल

अपना ग़म उन का ग़म सब का ग़म
पत्थरों ने सुना और चुप-चाप हँसते रहे

पत्थरों की इसी अंजुमन का मुंग़नीं हूँ मैं
और बेदर्द बे-हिस सितमगार पत्थर सुनेंगे कभी

उन का वो मुतरिब-ए-ख़ुश-नवा-शिकवा-संज-ए-ज़माँ
अपने नग़्मात की आग में जल गया

फिर उन ही के मानिंद पत्थर का बुत बन गया