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पत्थर का टुकड़ा / गुलाब खंडेलवाल

मैं जब तेरी राजसभा में पहुँचा
तो तेरे दरबारियों का ठाट-बाट देख कर
मेरी बुद्धि चकराने लगी,
अपने जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में सिमटी-सकुची
मेरी काया
अपने आप से ही मुँह चुराने लगी
वहाँ किसी के गले में मोतियों का हार था
और किसी की उँगलियों में
हीरे की अँगूठी चमक रही थी,
किसी के सुनहले मुकुट पर
पन्नों की कलगियाँ झलमलाती थीं,
किसी की पेशानी उगते सूरज-सी दमक रही थी;
पर जो रंगीन पत्थर का टुकड़ा
तुझे भेंट करने को
मैं अपनी झोली में छिपाकर लाया था,
जाने क्यों वह तुझे इतना भाया था
कि अपने सीने से लगाते हुए
तूने बार-बार उसे सबको दिखलाया था.
मैं अब तक जान नहीं पाया हूँ
कि तेरा मन रखने को ही
सबने मुँह से उसे सराहा था,
या उसमें कोई ऐसी बात भी थी
जिसे हर देखनेवाले ने मन से भी चाहा था.