भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पत्थर का शहर / उर्मिल सत्यभूषण

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:28, 22 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उर्मिल सत्यभूषण |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्थर का यह शहर है
पत्थर हुआ बशर है
यहाँ ज़िंदगी के मेले
फिर भी है सब अकेले
किसको भला खबर है
मरमर के रोज़ जीते। हंस हंस के लोग पीते
मिलता बहुत ज़हर है
दीवारें चढ़ गई हैं। रफ्तारे बढ़ गई हैं
अंधा हुआ सफर है।
ओढ़े हुये मुखौटे। सारे बड़े और छोटे
बड़ी काईयाँ नज़र है
कीड़ों समान कुचली
कलियों समान मसली
छोटी-बड़ी उम्र है।
चिड़ियों के चहचहों की
बच्चों के कहकहों की
किसको भला खबर है?
आओ, इसे गलायें
पानी इसे बनाये
प्यासा बहुत नगर है।