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पत्थर की दीवार / अली सरदार जाफ़री

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क्या कहूँ भयानक है
या हसीं है यह मंज़र
ख़्वाब है कि बेदारी
कुछ पता नहीं चलता
फूल भी है साये भी
खा़क भी है पानी भी
आदमी भी मेहनत भी
गीत भी हैं आँसू भी
फिर भी एक ख़ामोशी
रूहो-दिल की तनहाई
इक तवील <ref>लम्बा
</ref>सन्नाटा
जैसे साँप लहराये
माहो-साल आते हैं
और दिन निकलते हैं
जैसे दिल की बस्ती से
अजनबी गुज़र जाए

चीख़ती हुई घडि़याँ
ज़ख्म-ख़ुर्दा ताइर<ref>घाव खाया हुआ पक्षी</ref> हैं
नर्मरौ२<ref>मन्दगति</ref> सबुक<ref>द्रुतगति</ref> लमहे<ref>क्षण</ref>४
मुंजमिद सितारे हैं
रेंगती हैं तारीख़ें
रोज़ो-शब की राहों पर
ढँढ़ते हैं चश्मो-दिल
नक़्शे-पा नहीं मिलते
ज़िन्दगी के गुलदस्ते
ज़ेबे-ताके़-निस्याँ <ref>विस्मृति के आले में सजे हुए हैं</ref>हैं

पत्तियों की पलकों पर
ओस जगमाती है
इमलियों के पेडो़ पर
घूप पर सुखाती है
आफ़ताब हाँसता है
मुस्कराते हैं तारे
चाँद के कटोरे से
चाँदनी छलकती है
जेल की फ़ज़ाओं में
फिर भी इक अँधेरा है
जैसे रेत में गिर कर
दूध जज़्ब हो जाए
रौशनी के गालों पर
तीरगी के नाख़ुन की
सैकड़ों ख़राशें हैं

पत्थर की दीवारें

बारिकों की तामीरें
अज़दहों <ref>अजगरों</ref> के पैकर<ref>शरीर</ref> हैं
जो नये असीरों<ref>क़ैदियों</ref> को
रात-दिन निगलते हैं
उनके पेट की दोज़ख़
कोई भर नहीं सकता

पत्थर की दीवारें

भूक का भयानक रूप
चक्कियों के भद्दे राग
रोटियों के दाँतों में
रेत और कंकर हैं
दाल के पियालों में
ज़र्द-ज़र्द पानी है
चावलों की सूरत पर
मुफ़लिसी बरसती है
सब्ज़ियों के ज़ख़्मों से
पीप-सी टपकती है

पत्थर की दीवारें

दर्दो-ग़म के परों में
आँसुओं की ज़ंजीरें
बेबसी की महफ़िल में
हसरतों की तक़रीरें
रस्सियों की गाँठों में
बाज़ुओं की गोलाई
नींम-जान क़दमों में
बेड़ियों की शहनाई
हथकड़ी के हल्कों<ref>गोलाइयाँ</ref> में
हाथ कसमसाते हैं
फाँसियों के फन्दों में
गरदनें तड़पती हैं

पत्थर की दीवारें

जो कभी नहीं रोतीं
जो कभी नहीं हँसतीं
उनके सख़्त चेहरे पर
रंग है न गा़ज़ा है
खुरदरे लबों पर सिर्फ़
बेहिसी की मुहरें हैं

पत्थर की दीवारें

पत्थरों के फ़र्श और छत
पत्थरों की मेहराबें
पत्थरों की पेशानी
पत्थरों की आँखें हैं
पत्थरों के दरवाज़े
पत्थरों की अँगड़ाई
पत्थरों के पंजों में
आहनी<ref>लोहे की</ref>सलाख़ें हैं

और इन सलाख़ों में
हसरतें तमन्नाएँ
आरज़ुएँ उम्मीदें
ख़्वाब और ताबीरें
अश्क फूल और शबनम
चाँद की जवाँ नज़रें
धूप की सुनहरी ज़ुल्फ़
बादलों की परछाई
सुब्‌हो-शाम की परियाँ
मौसमों की लैलाएँ
सूलियों पे चढ़ती हैं

और इस अँधेरे में
सूलियों के साये में
इन्क़िलाब पलता है
तीरगी<ref>अँधेरे</ref> के काँटों पर
आफ़ताब चलता है
पत्थरों के सीने से
सुर्ख हाथ उगते हैं
हाथ हैं कि तलवारें
रात के अँधेरे में
जैसे शम्‌अ़ जलती है
उँगलियाँ फिरोज़ाँ हैं
बारिकों के कोनों से
साजिशें निकलती हैं
ख़ामुशी की नब्ज़ों में
घण्टियाँ-सी बजती हैं

जाने कैसे क़ैदी हैं
किस जहाँ से आये हैं
नाख़ुनों में कीलें हैं
हड्डियाँ शिकस्ता हैं
नौजवान जिस्मों पर
पैरहन<ref>वस्त्र</ref>हैं ज़ख्मों के
जगमगाते माथों पर
ख़ून की लकीरें हैं
अश्क आग के क़तरे
साँस तुन्द<ref>प्रचण्ड</ref> आँधी है
बात है कि तूफ़ाँ है
अबरुओं की जुम्बिश में
अ़ज़्म<ref>संकल्प</ref>मुस्कराते हैं
और निगह की लरज़िश में
हौसले मचलते हैं
त्योरियों की शिकनों में
नक़्शे-पा बग़ावत के

जितना ज़ुल्म सहते हैं
और मुस्कराते हैं
जितना दुःख उठाते हैं
और गीत गाते हैं
जब्र और बढ़ता है
ज़ह्र और चढ़ता है
ज़ालिमों की शिद्दत पर
ज़ुल्म चीख़ उठता है।
उनके लब नहीं हिलते
उनके सर नहीं झुकते
दिल से आह के बदले
इक सदा निकलती है
‘इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद’

ख़ाके-पाक<ref>पवित्र</ref>के बेटे
खेतियों के रखवाले
हाथ कारख़ानों के
इन्क़िलाब के शहपर
कोहसार के शाहीं
पत्थरों की कोरों पर
आँधियों की राहों पर
बिजलियों की बारिश में
गोलियों के तूफ़ाँ में
सर उठाये बैठे हैं

इन्क़िलाब-सामाँ है
हिन्द की फ़ज़ा सारी
नज़्‌अ़ के है आलम में
यह निज़ामे-ज़रदारी
वक़्त के महल में है
जश्ने-नौ की तैयारी
जश्ने-आम जुम्हूरी
इक़्तिदारे-मज़दूरी
ग़र्के़-आतिशो-आहन
बेबसी-ओ-मजबूरी
मुफ़लिसी-ओ-नादारी
तीरगी के बादल से
जुगनुओं की बारिश है
रक़्स में शरारे हैं
हर तरफ़ अँधेरा है
और इस अँधेरे में
हर तरफ़ शरारे हैं
कोई कह नहीं सकता
कौन-सा शरारा कब
बेक़रार हो जाए
शो’लाबार हो जाए
इन्क़िलाब आ जाए

शब्दार्थ
<references/>