भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पत्थर / रविकांत अनमोल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्थर-पत्थर नहीं होते ।
ये तो ऐसे बदनसीब होते हैं,
जिन्हें ईश्वर ने, ठोकरें खाने के लिए बनाया है ।
कभी हवा, कभी पानी और कभी अपने ही साथियों की
ठोकरें खाते, बेचारे सारी उम्र भटकते रहते हैं
और अंत में उम्र बिता कर रेत हो जाते हैं ।

पत्थर-पत्थर नहीं होते ।
ये तो सज़ा काटने आई आत्माएँ होते हैं
जिनके लिए ईश्वर ने हर तकलीफ़ का इंतज़ाम किया है
धूप,आँधी,,बारिश,बाढ़, ठोकरें और लानतें
सब कुछ इनके लिए ही होता है ।
सभी कुछ झेलते-झेलते बेचारे पत्थर ?
अपना पत्थरपन भी अंत में गँवा बैठते हैं ।

पत्थर-पत्थर नहीं होते ।
ये तो टूटी फूटी चट्टाने होते हैं ।
जो कभी हवा कभी पानी के बहाव में आकर
आपस में टकरा-टकरा कर चूर-चूर होते रहते हैं ।
कोई बाहरी ताक़त इन्हें कम ही तोड़ती है ।
ये आपस में ही एक दूसरे को तोड़-फोड़ कर
रेत कर लेते हैं ।

पत्थर-पत्थर नहीं होते ।
ये तो मेरे देश के शोषित-शासित लोग होते हैं ।
जिन्हें यह भी नहीं पता कि जब पत्थर मिल कर रहते हैं
तो चट्टान कहलाते हैं,
और कोई आँधी,कोई तूफ़ान, कोई बारिश या बाढ़
चट्टान का कुछ नहीं बिगाड़ सकती ।
पत्थर जब एक दूसरे की हिफ़ाज़त में खड़े होते हैं
तो वक़्त की चाल धीमी पड़ जाती है ।
पत्थर-बेचारे अनजान पत्थर
सिर्फ़ इतना ही जानते हैं
कि पानी या हवा के बहकावे में आकर
आपस में टकराना है ।
मूर्तियां बन कर बैठे अपने ही साथियों से
धोखा खाना है ।
अंततः आपस में टकरा-टकरा कर रेत हो जाना है ।

पत्थर-शायद पत्थर ही होते हैं ।
पगले पत्थर ।