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पत्र उत्तराफाल्गुनी के नाम / कुबेरनाथ राय

"मैं उन पर्वत की नील श्रेणियों से नीचे उतरकर
जिसमें किन्नरकण्ठ देवदारु पढ़ते है कोई
दिव्य-गाथा,
जिसमें एकान्त में जलधारायें और शिलाखण्ड
करते हैं परस्पर प्यार
और आदिम वंशरी सम्मोहन के सुरों का
जाल बुनती है
जहाँ है निर्मलता और अभय
आदिम साहस और गरिमा,
भरोसा, आश्वासन और शान्ति।

मैं उन नील श्रेणियों से उतर आया बहुत नीचे
गलत लोगों के बीच, गलत गाँव में
गलत नदी के किनारे,
जहाँ रोटी बड़ी मँहगी, दुर्लभ है स्वादिष्ट जल
जहाँ न कोई पक्षी न कोई गान।
कुछ नहीं : सहज सुन्दर और स्वस्थ्य कुछ भी नहीं।

मैं उतर आया बहुत नीचे एक अत्यन्त ग़लत देश में
जहाँ रात में चलते हैं लोग लेकर
धारदार गुप्ती हाथ में, वृक्षमूलों पर
दिन दुपहर रगड़ते हैं तीक्ष्णदंत काले वाराह,
रात्रि में बोलते उलूक मंत्र अभिचार के,
जहाँ सरस्वती है कैद और श्रद्धा है बन्धक!

मैं उतर आया बहुत ग़लत लोगों के बीच, गलत नदी के किनारे
जहाँ न मुक्त खुला आकाश, न धूप,
न तारा-पाँत, न ऋतुओं की हवाओं में
कोई संवाद, कहीं कुछ नहीं,
सब कुछ विरूप, किंकर्तव्यविमूढ़ता और जडि़माग्रस्त,
त्रस्‍त!

मैं उतर आया नीचे, बहुत नीचे, एक ग़लत देश में
एक ग़लत गाँव में, एक ग़लत नदी के किनारे!
जहाँ न कोई गान! न कोई पंछी, न कोई लड़की,
न ताजी धूप, न गरम रोटी और न स्वादिष्ट जल।
जहाँ है उमस दिन रात, पसीने की बदबू
जहाँ रति नहीं, उपरति है, उबकाई है
जहाँ आत्मा का पवित्र कमल कीचड़ से शीश उठा नहीं
पाता है।

जहाँ है घर-घर के कपाट बन्द
न कोई दस्तक, न कोई आहट, न कोई सांस,
न स्नान-यात्रा, न प्रीतिभोज की पांत।
जहाँ शब्द खिलते नहीं फूल की तरह
जहाँ शब्द बन नहीं पाते रोशनी की तेज किरण,
या कोमल दृष्टिपात।
जहाँ अन्तर की करुणा आँखों में आकर
विवश ठोस पत्थर बन जाती है
बन जाती है एक चितवन अपरिचित क्रूर।

परन्तु ऐसे में भी तुम उतरो एक बार, मेरी शिखर वासिनी प्रिया
मेरी प्रिय 'असमिया' छोकरी!
तुम उतरो बनकर एक पुलक, एक आलोक
तुम उतरो बनकर, एक स्वाद, एक मधु, एक गान
बनकर उतरो बनपाँखी, पुरोहितों का कण्ठ-स्वर
निर्मल प्रसन्न प्रात और आशीर्वाद!
जिससे मुहूर्त बन जाये सूर्य
सूर्य बन जाय शब्द, शब्द बन जाय जीवन
टहनियों से उगती पत्तियां फूल और फल
पकहर होती हुई फसल, मधुमय दानें,
प्रसन्न स्वादिष्ट जल की धार और
और घर-घर के कपाट खोलती सार्थक
सहज स्वस्थ्य भाषा, अपनी निजी भाषा।
ओ मेरी अनुत्तरा उत्तराफाल्गुनी,
तुम बनकर उतरो एक उज्ज्वल उद्धार।
और मैं एक अकिंचन महामूर्ख कालीदास
मैं एक 'बाभन' का छोकरा,
लिखूँगा तुम्हारी रूपगाथा के
श्लोक, छन्द और गान।"

[ लेखक की पुस्तक 'मराल' से ]