भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पथ-चंक्रम / जतरा चारू धाम / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:27, 17 जून 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पथ-चंक्रम –

हिमवत शीतल छाँह उत्तरे दक्षिण मलय - समीर
सागर सब तरि तुंग तरंगेँ बजबय गिरा गभीर।।4।।

गिरि - निर्झर कहइछ, झटकारि चलिअ, नहि लगबिअ देर
जीवनकेँ गतिमय बनबिअ, नहि करिअ अनर्थ अबेर।।5।।

गाछ-बिरिछ फल-दल लय कहइछ, नहि पाथे किछु काज
छाँह हमर बिसराम करिअ रुचिमत भोजन निर्व्याज।।6।।

निर्झर नदी हाथ झारी लय पानिक करय प्रबंध
पुरिबा पछबा बिअनि डोलाबय कहय, घमब नहि पंथ।।7।।

गाम-गाम मठ, नगर-नगर मन्दिर परिसर विस्तार
टोल-टोल मे पीठ गोसा़ि´क चर-चाँचरहु विहार।।8।।

वन-वन माइक थान, कुंज - पुंजहु वृन्दावन नाम
भारत देशक दरस-परस हित चलबे चारू धाम।।9।।