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परंपरा / शर्मिष्ठा पाण्डेय

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कल ब्याह हुआ
आज आई है
नयी बहू
सुना है
बड़ी ही सुंदरी है
बहुत पढ़ी लिखी भी
अरे हाँ! वो क्या कहते हैं
वो मरा कम्पूटर भी चलावा जाने है
भाग ही खुल गए
बबुवा की अम्मा के तो
ऐसी सुंदरी,गुनवंती पाके
ऐसा गोरा रंग
जैसे,मैदे की लोई
लेकिन,
हाय! ये क्या
कोई गुदना नाहीं गुदवाया
का बहुरिया????
अब कौन पीयेगा
इसका छुआ पानी
घोर अनर्थ
हल्दी नाहीं कुटवायेंगी हम
चलो जी चलो
का फायदा
ऐसी सुंदरी,पढ़ाकुन का
जिसके तन पर
एक्को गुदना भी नाहीं
और,
गज भर घूंघट तले
सोचती वो
नयी नवेली
अवाक सी
कमनीय काया वाली
क्या गुदवाऊं मैं
कोई,तितलीफूलॐ
पति का नाम
या धन्य मेरे
 विकासशील भारत का
वह पुण्य तिरंगा चिन्ह
जो,गुदेगा तो
कम चुभेगा
उन गोदने वाली सुइयों से
क्यूंकि,सारी चुभन तो
ठहर गयी है न
कलेजे पर आकर शपा
नसों तक तो जा ही न पाएंगी
वो तानों वाली सुइयां
जो,अभी कानों को छेद गयीं