भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परम्परावां ! / लक्ष्मीनारायण रंगा

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:08, 24 जुलाई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीनारायण रंगा |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जूनी अंध्यारी
संकड़ी संकड़ी
कोटड्यां मांय
कैव,
आपां सगळां
सूत्यां हां
मैली बासती सीरखा सूं
मूंढा ढक‘र

जिणमें आपां
पुराणीं सांसां नै
फैरूं पीवां‘र
छोड़ दां
फैरूं लेवा‘र
पाछी छोड दां,

कुण जाणै कद
आपां
ए सीरखां-कोटड्यां सूं
मुगती पासां ?
कद तांई
ओ जैरीलो
चक्कर चालसी ?
कद हुयसी
दिनुगो ?