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परशुराम / गुलाब खंडेलवाल

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हे परशुराम!
जीवन भर आप कंधे पर फरसा लिए घूमते रहे,
अपने अवतार होने की ख़ुशी में झूमते रहे,
आपने यह कभी नहीं सोचा
कि आपका युग समाप्त हो चुका है,
आपकी नस-नस में वह जहर व्याप्त हो चुका है
जो आपके कुल पराक्रम को ठंडा कर देगा.
आपकी सब कीर्ति-कथायें बटोरकर
पुरातत्त्व के खँडहरों में धर देगा.
 
कितनी मंद हो गई थी आपकी दृष्टि
कि जब एक नया अवतार
आपके सम्मुख आया था,
धनुष-भंग करके उसने अपना पुरुषार्थ
आपको दिखाया था,
तब भी आप देख नहीं पाये थे!
कंधे पर फरसा ही उठाये थे!
 
आपकी जड़ता पर
यद्यपि लक्ष्मण के तेवर बदल गए थे
परन्तु राम मुस्कुराते हुए आगे निकल गए थे;
उन्होंने समझ लिया था
कि आपसे उलझने में अपना ही मान घटता है
भले ही आपका फरसा
कभी बड़े-बड़े जंगल साफ कर चुका हो,
अब उससे एक तिनका भी नहीं कटता है