Last modified on 4 मई 2018, at 13:16

पराजय / महेश आलोक

उस समय जितने लोग थे सभी लोग चुप थे
और यह मुद्रा लगभग असुविधाजनक थी
कि लोग चुप थे और
एक दूसरे का मुँह देख रहे थे

और यह वह समय था जब किसी साँस्कृतिक सच की हत्या हो चुकी थी

यह तो तय था कि वह शोक सभा नहीं थी लेकिन
लोग इतने चुप थे कि उस सभा को
विचार-सभा भी नहीं कहा जा सकता था

वे बहुत बहुत चेहरे बहुत बहुत डर में डूबे थे
चेहरों की इस वास्तविकता में कुछ चेहरे अपनी त्वचा से
साहस इस तरह टपका रहे थे कि साहस
भय की तरह टपक रहा था

वे तमाम बौद्धिक जैसे लगने वाले लोग नहीं थे जो इकट्ठा थे
और यह हमारे समय की इतनी बड़ी सभा थी जितनी आमतौर पर
दिल्ली गेट के बगल में कबूतरों या किसी गिद्ध की मृत्यु पर
गिद्धों की नहीं होती है

असल में वे चुप्पा लोग इतने चुप थे
कि एक पूरी पराजय
अपनी चुप्पी में बोल रहे थे