Last modified on 22 फ़रवरी 2012, at 13:53

परिवर्त्तन चक्र / संजय अलंग

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:53, 22 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय अलंग |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कहानि...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


कहानियों में होता है ऐसा
या कभी खुलती है, तीसरी आँख उसकी
कभी घूमता है, चक्र उसका
कभी आता है प्रलय और
होता है पुर्ननिर्माण सृष्टि का
या चलती रहती है सृष्टि यूँ ही
 
राजा ही बनता रहता है भगवान
ईश्वर अनिवार्यतः लेता है जन्म
अयोध्या,मथुरा,लुम्बनी,कुण्डलग्राम के राजग़ृह में
जन्म नहीं होता उसका कभी
होरी के घर में


क्या चलेगा चक्र
खुलेगी तीसरी आँख
क्या वे भी पायेंगे माखन
या यूँ ही खाते रहेंगे चने

तू कभी उनके उत्थान और रक्षा को पैदा होगा
या सदैव धर्म की
तू कभी चाहेगा उत्थान उनका
या मात्र सेवा
क्या ‘वे’ भी ‘ये’ बनेंगें


तू स्थापित कर या न कर
बराबरी निश्चित है
तभी तो रामायण हो या संविधान
लिख और बना रहे हैं, वे ही
और चला रहे हैं चक्र
खोल रहे हैं आँख तीसरी

उनकी आँख मात्र कामदेव को देखकर नहीं खुलती
चक्र मात्र खेल हेतु नहीं चलता
वरन कलम से सृष्टि पुर्ननिर्मित्त होती है

बस अब देख तू