भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पलायन / मनोज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:43, 5 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> '''पलायन''' आम …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पलायन
आम आदमी बने रहने की कसक
और उससे पलायन की अथक
कमरतोड पसीनेदार मेहनत के बीच
वह आदमी ही बना रहा
जुबान और जूते ही घिसता रहा
अमरीकी स्टाइल में
कंधे उचका-उचका
सिर हिलाता रहा
माथे पर बर्तानी बलें दे-दे कर
अपनी फ्रेंच दाढी से
चेहरे को महिमामंडित करता रहा
 
आम आदमी से
चित्तरंजक पलायन के
सारगर्भित प्रयासों में,
घर से बेघर न होने की
अंतहीन आपाधापी में,
वह 'होने' का सबूत ढूंढता रहा
आईन्दा आम आदमी न बने रहने
के हांफते जुनून में
जिंदगी के खिलाफ
मौत और मात से
जूझता, जूझता
जूझता रहा.
 
इस क्रांतिकारी जूझन में
उसे देश-निकाला मिल गया,
वह संस्कृतियों से
शिष्ट-श्लिष्ट रीतियों से
धर्म से, दर्शन से
बुद्ध से, गांधी से
गेहूं से, गुलाब से
वक़्त से, इन्सान से
दिल से
दिमाग से
बाहर हो गया
बाहर हो गया
बाहर हो गया...
 
बाहरीपन के हविश में
वह आजीवन
युग से, राष्ट्र से, जमीन से
छिटककर, बहककर
नुस्खे ही नुस्खे तलाशता रहा
विदेशी प्रजाति के सामान मोलता रहा
'महान' विदेशियों के परित्यक्त जीन्स-पैंट,
ड्राइंगरूम के लिये इम्पोर्टड गुल्दस्ते,
आयातित टोपियां, कलम और घडियां
दैहिक-दैविक आस्तियां
तौलता रहा
मोलता रहा
 
बेदम होने तक
वाह निचोड-निचोड
संभावनाएं तलाशता रहा
पछता-पछता भागता रहा
जोंक-सरीखे आदमी से
 
शब्दकोश का, समाज का
ज़लील शब्द है--'आम आदमी'
जिससे अलंकृत होने पर
वह फुंफकारता है
भौंकता है, गुर्राता है
आंसू और अंगारे बरसाता है
जान की बाजी लगा देता है.