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पसीना काले रंग का / कविता भट्ट
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संगमरमर के चमकते घरौंदों को सजाने वाले,
झोपड़ियों को भी तरसते हैं, महल बनाने वाले।
युग बदल गए इतिहास तो बदले नहीं,
शाहजहाँ के अध्याय अभी हुए धुंधले नहीं।
काट डाले हाथ सहस्रों काठ के पुतले नहीं,
क्या इन निमिषों में सजते सपने सुनहले नहीं।
उचकते फिरते हो जिन बंगलों में तुम,
उन्हीं में ही हुए हैं अपने सपने गुम।
चार कौड़ियाँ ही है मूल्य हमारा,
तुम्हारा क्या दोष ये है भाग्य हमारा।
अथक परिश्रम तन का तो कोई मोल ना,
एक ओर मस्तिष्क को रख इसे तोल ना।
क्या भूखापन, और क्या नंगापन काले रंग का,
बदबूदार ही होता है पसीना काले रंग का।
तुम्हारे गोरे रंग की नींव में पत्थर-काले रंग का,
तुम्हारे तन की सुगन्ध में बदबूदार पसीना काले रंग का।