Last modified on 25 अप्रैल 2018, at 19:00

पसे-ग़ुबार आई थी सदा मुझे / विकास शर्मा 'राज़'

पसे-ग़ुबार आई थी सदा मुझे
फिर उसके बाद कुछ नहीं दिखा मुझे

मैं ख़ामुशी से अपनी सिम्त बढ़ गया
तिरा फ़िराक़ देखता रहा मुझे

मुक़ाबला किया ज़रा-सी देर बस
फिर उसके बाद शेर खा गया मुझे

ये और बात रात कट गई मगर
तिरे बग़ैर डर बहुत लगा मुझे

वो एक शाम रायगां चली गई
उस एक शाम कितना काम था मुझे

मगर मैं पहले की तरह न बन सका
उधेड़ कर जो फिर बुना गया मुझे

ये शहर रात भर जो मेरे साथ था
सहर हुई तो दूसरा लगा मुझे