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पहचान / साधना सिन्हा

क्यों ये वीरानी
बस्तियों में ?
राही अनेक हैं
फिर भी मैं
अकेली

रास्ता तो वही है
सड़क भी
वहीं खड़ी है

कहाँ गये मेरे वो...
कहाँ गई वह
पहचान
जब हर पेड़
हर घर
हर राही
आपस में जानते थे
एक-दूसरे को !

जाने से उनके
जिन्होंने दी थी
हम सबको
पहचान

पहचान रह गई
सिर्फ़ मुझ में
एकतरफ़ा
कैसा दर्द है यह
जानती हूँ मैं सबको
वे हैं मुझ से
अनजान ।

मैं
औरों के साथ–साथ
अपने लिए भी
अजनबी हो गई हूँ ।