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पहला अंक / धर्मवीर भारती

199 bytes removed, 20:26, 12 दिसम्बर 2007
[पर्दा उठाने पर स्टेज खाली है। दाईं और बाईं ओर बरछे और ढाल लिये दो प्रहरी हैं जो वार्तालाप करते हुए यन्त्र-परिचालित से स्टेज के आर-पार चलते हैं।]<br>
प्रहरी 1. थके हुए हैं हम,<br>
::पर घूम-घूम पहरा देते हैं <br> ::इस सूने गलियारे में <br>
प्रहरी 2. सूने गलियारे में <br>
::जिसके इन रत्न-जटित फर्शों पर<br> ::कौरव-वधुएँ <br> ::मंथर-मंथर गति से <br> ::सुरभित पवन-तरंगों-सी चलती थीं<br> ::आज वे विधवा हैं,<br>
प्रहरी 1. थके हुए हैं हम, <br>
::इसलिए नहीं कि <br> ::कहीं युद्धों में हमने भी <br> ::बाहुबल दिखाया है <br> ::प्रहरी थे हम केवल <br> ::सत्रह दिनों के लोमहर्षक संग्राम में <br> ::भाले हमारे ये, <br> ::ढालें हमारी ये, <br> ::निरर्थक पड़ी रहीं <br> ::अंगों पर बोझ बनी <br> ::रक्षक थे हम केवल <br> ::लेकिन रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ <br>
प्रहरी 2. रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ..........<br>
::संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अन्धे की <br> ::जिसकी सन्तानों ने<br> ::महायुद्ध घोषित किये,<br> ::जिसके अन्धेपन में मर्यादा<br> ::गलित अंग वेश्या-सी<br> ::प्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरी <br> ::उस अन्धी संस्कृति,<br> ::उस रोगी मर्यादा की <br> ::रक्षा हम करते रहे <br> ::सत्रह दिन।<br>
प्रहरी 1. जिसने अब हमको थका डाला है <br>
::मेहनत हमारी निरर्थक थी <br> ::आस्था का,<br> ::साहस का, <br> ::श्रम का, <br> ::अस्तित्व का हमारे <br> ::कुछ अर्थ नहीं था <br> ::कुछ भी अर्थ नहीं था <br>
प्रहरी 2. अर्थ नहीं था <br>
::कुछ भी अर्थ नहीं था<br> ::जीवन के अर्थहीन <br> ::सूने गलियारे में <br> ::पहरा दे देकर <br> ::अब थके हुए हैं हम <br>
अब चुके हुए हैं हम <br>
[चुप होकर वे आर-पार घूमते हैं। सहसा स्टेज पर प्रकाश धीमा हो जाता है। नेपथ्य से आँधी की-सी ध्वनि आती है। एक प्रहरी कान लगाकर सुनता है, दूसरा भौंहों पर हाथ रख कर आकाश की ओर देखता है।]<br>