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पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना / गुलाम मोहम्मद क़ासिर

पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना
और फिर पूरी काएनात बना

हुस्न ने ख़द कहा मुसव्विर से
पाँव पर मेरे कोई हाथ बना

प्यास की सल्तनत नहीं मिट्टी
लाख दजले बना फ़ुरात बना

ग़म का सूरज वो दे गया तुझ का
चाहे अब दिन बना की रात बना

शेर इक मश्ग़ला था ‘कासिर’ का
अब यही मक्सद-ए-हयात बना