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पहाड़ों पर नमक बोती औरतें / अनिल कार्की

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अपनी इजा, जेड़ज्या, काखीयों, भौजीयों को जो ज़िन्दा हैं, उन आमाओं को जो पहाड़ जीते हुए शहीद हो गईं, उनको जिन्होंने पहले-पहल मुझे हिमालय दिखाया

1.

पहाड़ों पर नमक बोती औरतें
बहुत सुबह ही निकल जाती हैं
अपने घरों से
होती हैं तब उनके हाथों में
दराती और रस्सी
चूख<ref>बड़ा नीबू</ref> के बड़े-बड़े दाने
सिलबट्टे में पिसा गया
महकदार नमक,

छोड़ आती हैं वे
बच्चों की आँखों के भीतर
सबसे मीठी कोई चीज़
लेकिन नहीं होती वे पर्वतारोही
दाखिल होते हैं पहाड़ अनिवार्यताओं के साथ
उनके जीवन में,
हर दिन पहाड़ों को पाना होता है
उनसे पार,
उनके पास होता है तेज़ चटपटा नमक व गुड़ भी
जिसे खर्चती हैं वे मोतियों की तरह
किसी धार<ref>पहाड़ की चढ़ाई या पर्वतों की चोटी</ref> पर
ढलान में उतरते हुए या फिर चढ़ते हुए
इस तरह होती हैं उनकी अपनी जगहें
जंगलों के बीच भी
जहाँ वे ज़ोर से हँसती हैं
दरातियों के
नोक से ज़मीन को कुरेदते हुए
बहुत सारा नमक बो आती हैं
वे पहाड़ों पर

2.

उगता है उनका नमक
अपनी ही बरसातों में
अपने ही एकान्त में
अपनी ही काया में
अपनी ही ठसक में

वे बैठ जाती हैं तब
किसी धार की नोक में
टिके पत्थर पर

छमछट दिखता है
जहाँ से नदी का किनारा
दूर घाटी में पसरती नदी
की तरह महसूस करती हैं
तब वे ख़ुद को

उनके गादे<ref>टाँट के कपड़े से कमर में बाँध कर बनाया गया झोला�</ref> से झाँकती हैं
हरी पत्तियाँ बाँज की
एकटक
अपने तनों से मुक्त
न्योली<ref>एक विरह गीत जो गहन जंगलों के बीच घसियारिनें गाती हैं </ref> गाते हुए

करती हैं वे सम्बोधित
अपनी ही भाषा में
अपने ही अनघड़ शब्दों में पहाड़ को

वे गढ़ती हैं छीड़<ref>जल प्रपात या झरना</ref>
फिर गिरती हैं
और बुग्यालों में पसर जाती हैं
उनकी दराती तब
घास बनकर उगती है
चारों ओर हरी
उनका यह महकदार नमक सीझता नहीं
बल्कि बिखर जाता है
वे फिर से काट लाती हैं
हरापन अपने घरों के भीतर
और बो आती हैं नमक फिर से पहाड़ों पर

3.

नमक बोती हुई औरतें
थकती नहीं
या कि उन्हें थकना बताया ही नहीं गया है
वे होती हैं
एक शिकारी चिड़िया की तरह
जो खदेड़ देती हैं
बहुत दूर
अंगुली वाले चीलों को
अपने घोंसले से

4.
 
उनकी रातें भी होती हैं
अपने परदेस गए पतियों के लिए नहीं
बल्कि अपने दुःखों को साझा करने
वे रातों को चल पड़ती हैं
मीलों दूर
जत्थों में
चाँचरी<ref>एक लोक सामूहिक नृत्यगीत - गोल घेरे में गाया जाता है</ref> गाने
वे बहुत शातिर
छापामारों की तरह
कर देती हैं तब
रात को गोल घेरे में बन्द
वे हाथों में हाथ लेकर
बना लेती चक्रव्यूह
जहाँ नहीं घुस पाती
उदासी
तब फाटक पर टंगी
बोतल-बत्ती
धधकती है
बाँज के गिल्ठे
लाल हो रहे होते हैं कहीं किसी कोने में
उनके गीतों की हवा पाकर
तब धूल उठती है
ज़मीन निखर जाती है
वह अपने पतियों के बिना भी रहती हैं ख़ुश
पति उनके लिए केवल
होते हैं पति
या फिर फौजी कैन्टीन के सस्ते सामान की तरह

5.
 
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
अपने परदेस जाते
पतियों को पहुँचाने
धार तक आती हैं हमेशा
फिर लौट जाती हैं धार के उस तरफ
घास से भरे डोके<ref>रिंगाल की एक शंकुनुमा डलिया जो घस्यारिनें पीठ पर बाँधती हैं</ref> लेकर
या पानी की गगरी काँख में दबाए
क्योंकि वे जानती हैं
लौट आते हैं परदेश गए लोग
अपनी ज़मीनों को एक दिन
इसलिए वे बसन्त का स्वागत करती हैं
दरवाज़ों पर फूल
रखती हैं
बसन्त पंचमी को
वे जाती हैं जंगल
दे देती हैं वह अपनी सारी टीस
हिलाँस<ref>एक पहाड़ी पक्षी</ref> को
अपने विरह को भूल जाती हैं
घुघुती<ref>पहाड़ों में विरह का प्रतीक फाख्ता की प्रजाति का एक पक्षी</ref> की साँखी<ref>गरदन</ref> से निकलती घूर-घूर की आवाज़ में
अपने रंग में रंग देती हैं जंगलों को
तब बुराँश<ref>लाल रंग का एक पहाड़ी फूल</ref> खिलता है लाल
काफल<ref>एक पहाड़ी रसीला जंगली फल</ref> में भर जाता है रस
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
महकदार नमक लिए
चलती हैं हमेशा

6.

पहाड़ पर नमक बोती औरतों
के होते हैं प्रेमी
वे खुद होती हैं महान प्रेमिकाएँ
अपने देशाटन पर गए
पतियों से वे करती आई हैं
विद्रोह
और घुमक्कड़ों के साथ भागने के
उनके क़िस्से अब तक
ज़िन्दा हैं पहाड़ों पर<ref>देशाटन पर गए पतियों - एक ब्राह्मण जो तीर्थ-यात्रा पर गया और उसकी पत्नी भाना, नाथ मत के प्रसिद्ध जोगी और घुमक्कड़ गंगनाथ के साथ भाग गई। गंगनाथ कुमाऊँ में मूलतः दलितों का देवता माना जाता है।</ref>*
वे भेड़ों का
रेवड़ लेकर
चली आती हैं भोट से
कत्यूर राजाओं के दरबारों तक
अपने प्रेम को व्यक्त करने
राजाओं के दरबारों से सुरक्षित
निकल भी जाती हैं
अपने जंगलों को
उन्हें पाने के लिए
राजा खोते आए हैं
अपनी सेनाएँ

अपनी ओर उठती ज़मींदारों की आँखें फोड़ कर
भाग आती हैं वे अपने प्रेमियों के पास अक्सर
वे खोच देती हैं बागनाथ की मूर्ति की आँखें
भगवानों के घूरने की आदत से परेशान होकर<ref>भेड़ों का रेवड़ लेकर भोट से आने वाली - कुमाऊँ की प्रसिद्ध प्रेम कथा राजुला-मालूसाही की नायिका राजुला सौक्याण, भोट उसका क्षेत्र। मध्यहिमालय में निवास करने वाली रं जनजाति की बहादुर स्त्री जो कत्यूर राजा मालूसाही से प्रेम करती थी, जिसने बागनाथ की मूर्ति की आँखें फोड़ डाली कि वो उसे घूर रही थी और ज़मींदारों की आँखें फोड़ कर अपने मालूसाही राजा के भवन तक पहुँची और शक्तियों से उसने पूरे राज्य को गहरी नींद में सुला दिया और राजा भी उसकी शक्ति से नहीं बचा। सोए हुए राजा के सिरहाने वह एक पत्र लिख कर गई, अगर तूने अपनी इजा के स्तनों का दूध पिया है तो मेरे भोट आकर मुझे ब्याह कर ला तब तू सच्चा राजा और फिर सुरक्षित अपने घर लौट भी गई। राजा ने उसके इलाके में चढ़ाई की और उसकी पूरी सेना इस युद्ध में ख़त्म हो गई ऐसा माना जाता है।</ref>
वे नदियों को देती हैं सोने के सिक्के दान<ref>नदियों को सोने के सिक्के दान देने वाली रं जनजाति की एक महिला झसुली दताल</ref>
कहती हैं बहती रहना
पत्थरों को मिट्टी बनाते रहना घिस-पिस कर
तब जब वह बन जाएँगे
मिट्टी
हम बो देंगीं उन पर नमक

7.

पहाड़ पर नमक बोती औरतें
होती हैं इजाएँ
उनके बच्चे
खेलते हैं मिटटी में
और खा भी लेते हैं
वे मिट्टी का स्वाद जानते हैं
उनकी नाक बहती है
बहती हुई नाक
का नमकीनपन
उन्होंने चख़्ख़ा है
इजा के वक्ष से लगते हुए
यह प्रमाणित हो जाता है
ख़ुद-ब-ख़ुद

पसीने से कुछ अलग नहीं होता
इजा के वक्ष का स्वाद
जो होठों पर चिपका रहता है
उनके जवान हो जाने पर भी
जवान होने से पहले वह
पहाड़ों पर खेलते हैं
फिसलने वाला खेल
फिसलते हुए
फट जाती है
उनकी पैण्ट पिछवाड़े से
स्कूल की खाकी पैण्ट के पीछे हो जाते हैं छेद
जिसे वह आजीवन सीते रहते हैं फिर
इजाओं से अलग होकर
वे पहाड़ों पर
जाते हैं गाय चराने
तब रिभड़ाते हैं बैलों को
और जला देते हैं
सबसे ऊँचे पहाड़ पर खतडुवा<ref>एक उत्सव जिसमें ऊँची पहाड़ी पर घास-फूस इकठ्ठा कर जलाया जाता है, मुख्यतः इसे जानवरों के त्योहार के रूप में मनाया जाता है</ref>13
उनकी माएँ
तब उनके लिए पकाती हैं
रोटी
और पीसती हैं नमक

8.

पहाड़ पर नमक बोती औरतें
जब कभी
पहाड़ों से
घास के डोके के साथ
गिरती हैं
छमछट ढलान पर
लुढ़कते हुए
नदी के पास पहुँच जाती हैं
या एक नदी हो जाती हैं
तब बदल दिया जाता है उस धार का नाम
उनकी शहादत पर

पिताओं और पतियों के घर से
दूर इस जंगल में
वे याद की जाती हैं हमेशा
घसयारिनों द्वारा

तब शाम का पीला घाम केवल उनके लिए ही पसरता है पहाड़ों पर
ताकि सूख सके
मासिक-धर्म में पहनी गई उनकी धोती
इसी धूप में नहाती हैं वे गाड़-खोलों में
बैठ जाती हैं गाड़ के सबसे ऊँचे टीले में
यही धूप मिलती है छुतिया सैणी<ref>मासिक-धर्म वाली स्त्री (पहाड़ों में इस दौरान इन्हें अछूत समझा जाता है और घर के सदस्य तक इन्हें नहीं छूते)</ref> को
सूर्ज की ओर से
पहाड़ लपक कर पकड़ लेता है इस धूप को
अपने सच्चे हकदारों के लिए

उस वक़्त घरों पर बैठी
पहाड़ पर नमक बोने वाली औरतें
पहाड़ों से गिरी हुई शहीद औरतों को
याद करती हुई
अपने बच्चों को बताती हैं
कि क्यों आता है पीला घाम पहाड़ों पर साँझ को ही

कैसे पड़ा होगा
नाम इस दुनिया में
जगहों का
पेड़ों का
चिड़ियों का
 
यहाँ तक की प्योली के फूल<ref>पीले रंग का एक फूल जिसके साथ लोक कथाओं में किसी पहाड़ी स्त्री के पुनर्जन्म की कथा जुड़ी हुई है </ref> का भी
और इस तरह बताती हैं
अपने इतिहास और अपनी लड़ाइयों में
वे राजधानी से दूर
किस तरह होती हैं शामिल
किस तरह होती हैं शहीद
किस तरह करती हैं गर्व
किस तरह उगती हैं ढलानों पर
किस तरह भींच लेती हैं ज़मीनों को अपनी जड़ों से
बच्चे सुनते हैं
और अधबीच में सुनते हुए सो जाते हैं
एक लम्बे अन्तराल के बाद
अभिमन्यु घिर जाता है
चक्रव्यूह में
ज्यों ही जवान एकलव्य निकलता है
अपने कबीले से बाहर काट दिया जाता है
उसका अँगूठा
तब इतिहास में अर्जुन लिखे जाते हैं
गाण्डीव धनुष के साथ
जबकि पहाड़ पर नमक बोती औरतें
मरकर भी नहीं छोड़ती अपनी ज़मीनें
वे घट्ट<ref>घराट</ref> वाली गाड़
जंगल वाली धार
और नौले<ref>जलाशय</ref> वाले खोले<ref>गधेरे</ref> में
रहती हैं मौजूद हमेशा
उनके हिस्से का नमक
उनके हिस्से का टीका
उनके हिस्से के कपड़े
उनके हिस्से की दरातियाँ
और उनके हिस्से का दर्पण आज भी
चढ़ाता है जगरिया<ref>पहाड़ी ओझा झाड़ फूँक करने वाला</ref>
कहीं किसी धार पर डर के मारे
मरकर भी नहीं छोड़ती वे
अपनी संगज्यों<ref>साथी घसयारिनें</ref> को
हर दुःख में उन्हें देती हैं
लड़ने का हौंसला
पहाड़ पर नमक बोते रहने की ज़िम्मेदारी से
कराती रहती हैं अवगत
वे सपनों में फटी धोती पहन कर चली आती हैं
माँगती हैं चूख
माँगती हैं नमक
महकदार
बुलाती हैं जंगलों में
अपनी सहेलियों को
धार पर बैठ कर सुनाने को कहती हैं न्योली
औरतें जाती हैं जंगल
और फिर-फिर बो आती हैं
नमक पहाड़ों पर

शब्दार्थ
<references/>