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पाँचम खण्‍ड / भाग 7 / बैजू मिश्र 'देहाती'

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तखनहि अति सैं प्रबल प्रयोग।
खसा भूमि पर चारू घोड़ा,
भूमि युद्ध हो से उद्योग।
राम उठा चारू घोड़ाकें,
रावण पर छोड़ल बहुवाण।
बीसभुजा दस शीसहुँ बेधल,
छल ने कोनो प्राणक त्राण।
शरसौं बेधल दसकंधक छल,
बहल रक्त केर बड़का रेत।
तदपि युद्ध नहि छोड़ल दसमुख,
डटल रहल ओहि युद्धक खेत।
कला युद्ध केर देखा रहल छथि,
नरतन धयने प्रभु जगदीश।
तीस वाण पुनि राम चलौलनि,
काटल बीस भुजा दसशीस।
बेरि बेरि काटथि पुनि उपजय,
रावणके सिर भुजा समेत।
शीस चढ़ा शिवसौं बरसौलक,
फल प्रलाप नहि खसए अचेत।
लक्ष लक्ष सिर नभमे बिचरए,
करए कीश दलकै भयभीत।
गरजए राम लखन कत भागल,
हनब करौ मम वचन प्रतीत।
देवगणहुँ सभ भेला सशंकित,
करता की प्रभु आब उपाए।
एतबहिमे अगणित शर छोड़ल,
बेधल गरजब देल नशाय।
तखनहि रावण वाण चलौलक,
कठिन, विभीषण बना निसान।
राम जानि तखनहि आगा बढ़ि,
निज छाती पर सहलनि वान।
किंचित मूर्छा भेलनि रामकें,
लेल विभीषण गदा उठाए।
मारल छाती पर रावणकें,
धरती तैखन देल धराएं
रावण पुनि उठि गदा सम्हारल,
गदा युद्ध केर भेल प्रसंग।
क्यो नहि ककरोसँ कम लागए,
देखि छला सभ सेना दंग।
लड़ता ऐना विभीषण रणमे,
ई नहि छल ककरो विश्वासं
कहाँ दसानन महाबली छल,
कहाँ विभीषण बलकेर हास।
किन्तु कृपा भगवान रामकेर,
लड़ै छला नहि कनियों मोह।
छक्का छला छोड़ौने भाइक,
छला बहौने आँखिक नोर।
थाकल देखि विभीषणकें तहँ,
आबि गेला हनुमंत कपीश।
गदा प्रहार कयल छाती पर,
खसल ततए मूर्छित दसशीस।
पुनि वीर हनुमान कए लेलनि,
नांगरि अपन ततेक विस्तार।
कए लपेटि दसकंधक तनकें,
गेला गगनमे करय प्रहार।
गदा युद्ध छल महा भयंकर,
वरणतके तहि कालक हाल।
अति सैं महाबली छथि तैयो,
भयत्रस्त भए हिचकथि काल।
नभकें छोड़ि दुहू भू अएला,
तखनहुँ युद्ध छला करैत।
दूहू छला समाने बलगर,
नहि ककरो सऽ केओ डरैतं
धरती पर पुनि आबि दसानन,
माया केर पुनि रचलक जाल।
सहस सहस रावण प्रकटौलक,
लागल करए युद्ध विकराल।
त्राहि त्राहि मचि गेल कीशमे,
आब ने ककरो बाँचत प्राण।
हे अवधेश करू रक्षा दु्रत,
हे जगपति हे दया निधान।
जापवंत नल नील आदि सभ,
लड़ै छला अंगद सुग्रीव।
मारै छला बहुत रावणकें,
तदपि अल्प नहि होइछल जीव।
विकल देखि दलकें रघुनन्दन,
अग्नि वाण छोड़ल तत्काल।
छिन्न भिन्न कए माया मेटल,
रावण केर छल जतबा जाल।
नभसे भेला प्रसन्न देवगण,
देखि राम केर प्रबल प्रताप।
क्षणमे मायाजाल हटाओल,
हरल सभक मन केर संताप।
नभमे देखि प्रसन्न देवगण,
दसकंधक मन उपजल क्रोध।
दौगल हुनके सभ पर दसमुख,
करबए अपन बलक हुनि बोध।
ठाढ़ छला बीचहिमे अंगद,
छाती पर कसि मारल लात।
खसल चितंग दसानन भू पर,
सहल नहि गेलै बज्राघात।
पुनः उठल उठि चलबए लागल,
भुजा बीस सऽ अगणित वाण।
पुनि व्याकुल भए गेला कीश दल,
होनि ने प्राणकें भेटत त्राण।
राम देखि दुर्दशा दलक निज,
काटल भुज सब अरू दसशीस।
किन्तु पुनः उपजल ओहिना सभ,
चिंतित भेला रीछ अरू कीश।
अंगदादि घेरल रावणकें,
नौह दांत केर कयल प्रयोग।
क्यो छाती अरू पीठहुँमे क्यो,
कयल पेटमे तीव्र प्रयोग।
देखि प्रवाह रक्त केर देहक,
आबिगेल अति क्रोधक बीच।
पकड़ि पकड़ि मारय लागल छल,
कीश रीछदल सभकें खींच।
अंगदादि सभ होस गमौलनि,
बानर सेना गेल पड़ाए।
हाहाकार मचल चारू दिश,
नहि सुझैत छल कोनो उपाए।
जामवंत अएला एतबहिमे,
कसिकए मारल छाती लात।
खसल चितंग दसानन भू पर,
सहि ने सकल छल बज्राघात।
रथ पर उठा धयल रावणकें,
सारथि राक्षसगण बलबंत।
लागल करय होसमे लाबी,
उपचारक छल नहि किछु अंत।
साँझ भेलै संग शिविर पहुँचला,
दूहू दलक सुभट बलवीर।
ओही रातिमे त्रिजटा अएली,
सियाक हृदयमे बन्हबए धीर।
सेना सकल मरल दसकंधक,
बाँचल अछि अपनेटा एक।
त्रिजटा कहल ओहो मरिजायत,
दुःख जैत अछि अहुँक जतेक।
सीता कहल सुनू हे माता,
मरत दसानन अछि ने भरोसं
प्रभुक चरण हम जलदी पबितहुँ,
सभ अछि हमर भाग्य केर दोष।
आव ने चिंता करू हे सीते,
मरण ओकर छै बहुत समीप।
त्रिजटा बजली छोड़ि रहल छथि,
जतेक काल ओ अबध महीप।
जाबत छियै हृदयमे ओकरा,
अहँ जिवै अछि ततबे काल।
हरिते मरण ओकर भऽ जेतै,
बचा ने सकतै काल कराल।
त्रिजटा सुना समार केर गाथा,
गेली ताहि क्षण अपन निवास।
नयन सिया केर नोर बहै छल,
होन्हि ने शुभदिन केर विश्वास।
प्रात उठि दोसर दिन रावण,
धयल युद्ध भूमिक पुनि बाट।
सारथि सेहो बहुत समझौलक,
मुदा मृत्यु छल बनल विराट।
आबि दसानन समर भूमिमे,
कयल युद्ध अति सैं घनघोर।
बरिसाबए शत शत शर भुजसँ,
जकर कतहु छल ओर ने छोर।
लड़ै छला बानर सभ सेहो,
पर्वत तरूकें फेकि उखाड़ि।
किन्तु वाण रावण तत चलबए,
कऽ देने छल शर भर मारि।
संगे माया छल से कयने,
अगनित हनुमत देलनि बनाए।
मुदा लड़ए ओ रामे दलसँ,
देलक राम दलकें भरमाए।
त्राहि त्राहि छल रामक दलमे,
चारू दिश छल हाहाकार।
रक्षा करू अवधपति जलदी,
छोड़ि रहल छी हम संसार।
सुनिते राम करूणा वच सबहक,
मारल अग्निवाणकें तानि।
लुप्त भेल छल माया तखनहि,
लगला लड़ए कीश दल फानि।
राम तीसटा वाण चलौलनि,
देलनि बीस भुज शीसहुँ काटि।
किन्तु पुनः उपजल शीसहुँभुज,
भेल सकल श्रम अखनहुँ मारि।
तखन विभीषणसँ प्रभु पुछलनि,
कहू विभीषण की अछि भेद।
काटि दैत छी पुनि उपजै अछि,
नहि मरि रहल तकर अछि खेद।
कहल विभीषण सुनू कृपानिधि,
छैक विभीषण नाभिमे अमियक वास।
मरत ने ई ताबत धरि जाबत,
हैन ने ओ अमृत केर नास।
जानि राम बहु वाण चलौलनि,
अमिय सोखि भुज शीसहुँ काटि।
बना देलनि दसमुखक शक्तिकें,
अहंकार संगहि सभ माटि।
तैयो कीओ खसल धरापर,
बिनु भुज सिर ओ चलल प्रचंड।
रामा दल पर दौगल गतिसँ,
किन्तु राम कयलनि दू खंड।
तखन दसानन खसल धरापर,
सिर पहुँचल मन्दोदरीक समक्ष।
देखि दशा रावणक सुभामा,
कनली पीटि पीटि निज वक्ष।
नभसँ देव समूह खसौलनि,
अमित पुष्प रघुनाथक माथ।
स्तुति कय बहु कयल प्रशंसा,
कृपा सिंधु कहि जोड़ल हाथ।
अएला जे एहि धरापर, तन धन जन बलबंत।
कोटि उपाय कयल मुदा, तनको भएगेल अंत।
तीनू भुवन प्रसिद्ध छल, दसकंधरक प्रताप।
देखल यग हुनको प्रिया, करइत करूण विलाप।
ताहि फलक यग करैअछि, झूठ मूठ अभिमान।
सतपथ छोड़ि चलैत अछि, ताकि कुपथ अज्ञान।
जौं कोनो बल देथि प्रभु, करी ने मन अभिमान।
चलए एकर विपरीत जे, से अछि मूर्ख निधान।
विनयशीलता नहि तजी, बल कतवो भएजाए।
सतत् रहत यशलोकमे, मंगल ध्वज फहराए।