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पाँवों में जंजीर, दौड़ की इच्छा मन भर दी / ललित मोहन त्रिवेदी

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पाँवों में जंज़ीर, दौड़ की इच्छा मन भर दी !
तूने भी ज्यादती बनाने वाले, मुझसे की !!

जीवन में सब थोड़ा-थोड़ा
ये संस्कार उमर भर ओढा
रस की बूँदें तो छलकायीं
लेकिन कसकर नहीं निचोडा

मीरा की झांझर जैसा मन, व्यापारी सा जीवन !
ऊपर से ढाई आखर की भाषा मन भर दी !!
तूने भी ज्यादती ......................

मौसम सर्द, हवाएं तीखीं
नभ असीम, अरु गीली पंखियाँ
फ़िर भी साथ निभायीं मैंने
उजला मन, कजरारी अखियाँ

फिसलन भरी राह पर चलना, वैसे क्या कम था !
जो कबीर की साफ़ चदरिया, मेरे सर धर दी !!
तूने भी ज्यादती ...................

गहरी प्यास समंदर खारे
भटक मरा हूं द्वारे-द्वारे
फ़िर भी अहम् न टूटा इतना
जो नदिया से हाथ पसारे

सर तो झुक जाने को आतुर, छाती मगर तनी है !
जी भर कर रोने पर भी तो पाबंदी धर दी !!
तूने भी ज्यादती ...................