Last modified on 26 अक्टूबर 2016, at 04:19

पाँव भर जगह / सुजाता

उसे अक्सर देखा
शाम के छह बजे छूटती है जब
भागती है मेट्रो की ओर
सिर्फ माँ होती है वह उस वक़्त
जिसके बच्चे अकेले हैं घर पर
नाम पूछो तो वह भी नही बता पाएगी।

पाँव-भर खड़े रहने की जगह खचाखच भीड़ में
बचाए रखना सिर्फ
उसका प्रयोजन है
किसी रॉड के सहारे से वह जमी रहती है
बेपरवाह धक्कों,रगड़ों और कोलाहल से
बस कुछ पल और
अगले स्टेशन पर मिल ही जाएगी सीट
और बस कुछ ही सालों में बड़े हो जाएंगे बच्चे
लग ही जाएगी नैया पार
फिर सो जाएगी कुछ देर आराम से सीट पर
यूँ भी आँख बंद करने भर की दूरी पर रहती है नींद।

शहर में नौकरी के बिना चलता भी नहीं है।
कभी तो मिलती ही नहीं सीट घर आने तक भी।
माँ कमातीं अगर कुछ पढी लिखी होतीं
जद्दोजहद मेरी कुछ कम हो जाती।
चलो अच्छा है जो जैसा है।
ग्यारहवीं में पढती बड़ी बेटी
पढती है बेफिक्र मन लगाकर
शायद वह जान पाएगी जल्दी ही कि
सारी कोशिश माँ की
पाँव-भर जगह बचाने की नहीं
आने वाली कई पीढियों को बचा लेने की कोशिश थी।