भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पांच शे’र / यगाना चंगेज़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शरबत का घूँट जान के पीता हूँ खूनेदिल।

ग़म खाते-खाते मुँह का मज़ा तक बिगड़ गया॥


इसी फ़रेब ने मारा कि कल है कितनी दूर।

एक आज-कल में अबस<ref>व्यर्थ</ref> दिन गँवायें है क्या-क्या।


ख़ुशी में अपने क़दम चूम लूँ तो ज़ेबा<ref>मुनासिब</ref> है।

वो लगज़िशों पै<ref>लड़खडा़ने पर</ref> मेरी मुसकराये है क्या-क्या॥


बस एक नुक्तये-फ़र्ज़ी का<ref>कल्पना-बिंदु का</ref> नाम है काबा।

किसी को मरकज़े-तहक़ीक़ का<ref>खोज के लक्ष्य का</ref> पता न चला॥


उमीदो-बीमने<ref>आशा-निराशा</ref> मारा मुझे दुराहे पर।

कहाँ के दैरो-हरम? घर का रास्ता न मिला॥



शब्दार्थ
<references/>