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पाई छुअन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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भरम हुआ
यह न जाने कैसे
दरक गया
है मन का दर्पन।
धुँधले नैन
थे देख नहीं पाए
कौन पराया
कहाँ अपनापन ।
मुड़के देखा-
वो पुकार थी चीन्ही
पहचाना था
वो प्यारा सम्बोधन।
धुली उदासी
पहली बारिश में
धुल जाता ज्यों
धूसरित आँगन ।
आँसू नैन में
भरे थे डब-डब
बढ़ी हथेली
पोंछा हर कम्पन।
थे वे अपने
जनम-जनम के
बाँधे हुए थे
रेशम- से बन्धन।
प्राण युगों से
हैं इनमें अटके
यूँ ही भटके
ये था पागलपन
तपथा माथा
हो गया था शीतल
पाई छुअन
मिट गए संशय,
मन की उलझन ।