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पागल आता जाता है / धीरज श्रीवास्तव

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बीत गये है बरसों लेकिन जाने कैसा नाता है ।
प्रिये आज भी उसी गली से पागल आता-जाता है ।

बात पुरानी और मुहब्बत
अब भी पहले वाली है !
मगर शहर ये बिना तुम्हारे
बिल्कुल खाली खाली है !

याद दिलाकर बीती बातें वक्त इसे बहकाता है ।
प्रिये आज भी उसी गली से पागल आता-जाता है ।

रात-रात भर जगता है ये
बतियाता है तारों से !
तन्हाई में तुम्हें ढूँढ़ता
भाग रहा त्योहारों से !

कभी तुम्हारे खत पढ़कर ये अन्तर्मन महकाता है ।
प्रिये आज भी उसी गली से पागल आता-जाता है ।

दीप जलाता नहीं शाम को
दिल वैसे भी जलता है ।
खुद ही खुद में डूबा है बस
खुद ही खुद को छलता है ।

विरह अग्नि को अश्कों से ये बस केवल दहकाता है ।
प्रिये आज भी उसी गली से पागल आता-जाता है ।