Last modified on 7 जून 2013, at 06:52

पाथर / नारायणजी

 
1
परतीपर पड़ल अछि पाथर
कत’सँ आएल
एत’ बाधमे परती पर
दूर-दूर धरि
जखन कि कोनो पहाड़ नहि अछि

ककरा मनमे
माथ पर सवार भ’
कान्ह पर
मुँह दुसैत दूरीकें आएल
एक नहि, दू नहि.....
बीसो गोटे नहि डोला सकैत अछि

अपनामे मग्न अछि
परती पर पड़ल विशाल पाथर
सैकड़ो कोस दूर धरि
जत’ कोनो पहाड़ नहि रहैत अछि
सभक तर्ककें निरस्त करैत
आबि जाइत अछि पाथर

2
कहि नहि कहियासँ पड़ल अछि
परती पर
गामक क्यो नहि जनैत अछि
सभ मानैत अछि
परती पर पड़ल अछि पाथर

3
हम बाधसँ घर घुरैत छी
पाथर घुरैत नहि अछि हमरा संग
घरसँ बाध जाइत
हमरा भेटैत अछि परती पर
ओतहि जत’ काल्हियो छल
सम्पूर्ण जड़ता संग

घरसँ बाध अबैत छी हम
अबैत नहि अछि पाथर
जाइत नहि अछि कतहु

4
हमर गामबला एक दिन
जखन दोसर गामबलासँ
लड़ाइक क’ रहल रहए तैयारी
हमर पित्ती बाधमे
हमरा हाथमे एकटा बिझाएल तरूआरि दैत बजलाह-
नारायणजी, जाह
पाथर पर रगड़ि छोड़ा आबह बीझ-
आ हम सोचैत चलि देल
जएबाक हमरा अछि
सम्पूर्ण प्रभुता संग जत’ अछि पाथर
जाइत नहि अछि कतहु
अबैत नहि अछि कतहु

5
परती पर पड़ल अछि पाथर
आ हम चुमैत छी पाथकें
एकटा सौंस मनुक्ख सन
कवि जीवकान्तजी जकाँ
करैत छी दुलार
कहैत छी-
सर्वत्र नहि
तँ कतहु ने कतहु किछु अवश्य
हमर लड़ाइ लेल
अहाँ कम महत्वपूर्ण नहि छी

तहियासँ पाथर हमरा रगमे
शोणित बनि बहि रहल अछि
हमर आंगुर पकड़ि चलि रहल अछि
हम जत’ जाइत छी
संग चलैत अछि पाथर
हम जखन कखनो दिग्भ्रमित भ’ जाइत छी
हमरा बाट देखबैत अछि पाथर