भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पादुका से रह गए / विशाल समर्पित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पाँव के संग धूल भी अंदर गई
द्वार पर हम पादुका से रह गए

जिसपे हमको गर्व था वह
रेत का घर ढह चुका था
दर्द आँसू जाने क्या क्या
बाढ़ मे सब बह चुका था

कौरवों की सत्यता को जानकर
कर्ण के जैसे रुआसे रह गए
 
देख व्याकुल आप आकुल
संग हमारे आप रोये
वेदना के शुद्ध मोती
आँख ने उस रात खोये

गोपियाँ अंदर गईं कान्हा से मिलने
राधिका के प्राण प्यासे रह गए

स्वप्न टूटा और टूटा
कल्पना का तंत्र साँचा
हाय उसको कैसे भूला
रात दिन जो मंत्र वाँचा

चाँद अपना देखकर सबने पिया जल
हम उपासे थे उपासे रह गए