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पानी / अरुण देव

हिल रहा था पानी का आँचल
कीचड़ से सनी उसकी देह
जैसे सभ्यता का शव हो
कभी गाए थे कलश ने उसकी गरिमा के गीत
अंजुरी में मंत्र की तरह भरती थी उसकी पवित्रता

सभ्यताओं ने सुना था
घने जंगलों और उदास पहाड़ों से होकर
समतल मैदानों में बहता उसका गीत

धरती देखती थी प्यासी आँखों से
चमकते, गरजते, बरसते पानी की धज को

भीगी रात में वनस्पतियों के तन पर
ओस की टप-टप का संगीत भरता था जीवन

नदी किनारे जन्मी सभ्यताएँ
एक दिन बिन पानी
मछली की तरह रेत पर छटपटाएँगी
पत्थर की शय्या पर