भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पान / सुशीला पुरी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:34, 1 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रूँधना पड़ता है
चारो तरफ़ से
बनाना पड़ता है
आकाश के नीचे
एक नया आकाश
बचाना पड़ता है
लू और धूप से
सींचना पड़ता है
नियम से

बहुत नाजुक होते हैं रिश्ते
पान की तरह
फेरना पड़ता है बार-बार
गलने से बचाने के वास्ते
सूखने न पाए इसके लिए
लपेटनी पड़ती है नम चादर
स्वाद और रंगत के लिए
चूने कत्थे की तरह
पिसना पड़ता है, गलना पड़ता है

इसके बाद भी
इलाइची सी सुगंध
प्यार से ही आती है ।