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पार्थ परीक्षा / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

समर-महाभारत से पहले की बात है पुरानी।
निर्जन वन में बसते थे ऋषि वदेव्यास गुरू ज्ञानी।।

एक दिवस उपयुक्त महामुनि ने अवसर जब पाया।
पर्णकुटी में बली पार्थ को अपने पास बुलाया।।

पूछा अर्जुन ने नत हो, रख चरणों में मस्तक को।
त्रिकालज्ञ ऋषिवर्य! कहो, क्या आज्ञा है सेवक को?

शिरोधार्य कर, पालन करने का व्रत मैं लेता हूँ।
पूर्ण करूंगा, भंग न होगा कभी, वचन देता हूँ।।

तब त्रिकालदृष्टा ऋषि बोले, वचन पार्थ के सुनकर।
वत्स! महाभारत का होगा, आगे युद्ध भयंकर।।

अक्षौहिणी अठारह का होगा विनाश निश्चय है।
इस समरांगण में तुमको यदि करनी प्राप्त विजय है।।

देता हूँ आदेश तुम्हें जो करना उसका पालन।
है सहर्ष स्वीकार, कहा अर्जुन ने हो प्रणतानन।।

मुनि बोले, तो सुना वत्स! बल-विक्रम करने संचित।
शक्ति-साधना और तपोमय जीवन-यापन के हित।।

इस कोलाहलमयी विश्व-नगरी से दूर कहीं पर।
एकाकी रहना होगा निर्जन में कुटी बनाकर।।

जीवन की कृत्रिमताओं से अलग अलिप्त-अभोगी।
कामवासना से विमुक्त आदर्श व्रती वर योगी।।

रम्य प्रकृति के प्रांगण में होकर एकान्त निवासी।
करनी होगी सतत् साधना बन स्वध्येय अभिलाषी।।

जो आज्ञा कहकर ऋषिवर से विदा पार्थ ने चाही।
ले आशिष चल पड़ा अचल निर्दिष्ट मार्ग का राही।

गहन तपोवन, जहाँ फलित पुष्पित तरू थे लहराते।
मोहक अनुपम दृश्य प्रकृति के सबके हृदय लुभाते।।

कल-कल कलरव कर बहती थी जहाँ पयस्विनि धारा।
देता था संदेश शांति का स्वच्छ सुरम्य किनारा।।

लगता जैसे नैसर्गिक सुषमा सब वहीं जुटी थी।
उस तट से कुछ दूर पार्थ की पावन पर्णकुटी थी।।

युक्ताहार विहार कर्म से शक्ति नई नित पाने।
वीर धंनजय पूत तपोमय जीवन लगे बिताने।।

बीते यों कुछ वर्ष एक दिन अरूणोदय अवसर पर।
सहज भाव से निकल पड़े अर्जुन कुटिया से बाहर।।

मन की नौका शुभ्र विचारों के सागर में खेते।
चले नदी की ओर प्राकृतिक सुषमा का रस लेेते।।

पार्थ परीक्षा हेतु इन्द्र के द्वारा गई पठाई।
स्वर्गपुरी से उतर उर्वशी परी धरा पर आई।।

थी अनुपम लावण्यमयी साकार रूप की प्रतिमा।
देवलोक में थी प्रसिद्ध उसकी नर्तन गुण गरिमा।।

पड़ी पार्थ पर दृष्टि सिहर-सा उठा रोम हम तन का।
दिव्य भाल, सुगठित शरीर, था तेज अमित आनन का।।

दूर-दूर से अप्रतिम वह कमनीय रूप-रस चखती।
लता विटप की ओट रह गई अपलक नैन निरखती।।

यथा पूर्व स्नानादि कृत्य कर निज कुटिया में आकर।
ईश भजन में पार्थ पुनः रत हुए शांत मन सत्वर।।

था निरभ्र आकाश, पूर्णिमा का मयंक अति-उज्जवल।
सौरभमय मादक समीर था मत्त बनाता प्रतिपल।।

उस निशीथ बेल में थी सर्वत्र व्याप्त नीरवता।
प्रेम पुजारिन बनी लिए उर में असीम उत्सुकता।।

अलस पलक ले सघन अलक, सज्जित रत्नोंभरणों से।
पार्थ कुटी तक पहुँच उर्वशी गई चटल चरणों से।।

द्वारा खटखटाया कुटिया का बंद देख भीतर से।
भग्न समाधि हुई अर्जुन की चौंक पड़े मृदु से।।

हुए सशंकित से पहले कुछ सँभल गए फिर सत्वर।
पूछा, बाहर बोल रहा है कौन कुटी के दर पर?

‘द्वार खोलिए’ मृदुल स्वरों में उत्तर मिला उसी का।
सावधान हो गए वचन सुन आगन्तुक नारी का।।

खोला उठ कर द्वार, सामने देख हुए नत लोचन।
प्रणतानन हो किया समादर और नमन मन ही मन।।

असमय कैसे हुआ आगमन, पूछा देवि बताओ!
कौन कष्ट आ पड़ा अचानक, मुझे तनिक समझाओं।।

किसी निशाचर से पीड़ित हो या कि भयातुर भारी।
दो मुझको आदेश, करूँ अभिलाषा पूर्ण तुम्हारी।।

कहा उर्वशी ने, करते क्यों बातें भोलेपन की।
क्यों विनष्ट कर रहे व्यर्थ मादकता इस यौवन की।।

निर्जन वन में बस कर क्यों तापस का वेष बनाया।
जला रहे क्यों तप की ज्वाला में कंचन-सी काया।।

चौंक पड़े अर्जुन, फिर बोले, देवि स्पष्ट बतलाओ।
क्या अभिलाषा है अन्तर की इच्छा प्रकट जनाओ।।

बोली फिर उर्वशी, सुनो मन की उत्कट अभिलाषा।
देख तुम्हारा रूप जगी है, उर में कामपिपासा।।

बुझ पाती यदि प्यास तुम्हारा प्रणय सरोवर पाकर।
मन में मीठी याद तुम्हारी रहती बनी निरंतर।।

तुम जैसे ही रूप तेज बल-विक्रम के अधिकारी।
पुत्ररत्न की है अभिलाषा बनने की महतारी।।

बोले तभी धनंजय, इसमें माता! फिर क्या देरी।
मैं हूँ पुत्र तुम्हारा, तुम हो रूपवती माँ मेरी।।

कहो प्यार से बेटा मुझको, स्वीकारो यह नाता।
धन्य हो गया मैं भी पाकर तुम-सी अनुपम माता।।

गर्व मुझे होगा सचमुच माँ! बेटा बन कर तेरा।
मैं समझूंगा पुण्य-कर्म से भाग्य जगा यह मेरा।।

इतना कहना था, सुमनों की वृष्टि लगी तब होने।
जय-जय कार किया अर्जुन का इद्रादिक देवों ने।।

दी आशीष उर्वशी ने भी, कीर्ति सदा अक्षय हो।
भारत के इस रण में बेटा तुमको प्राप्त विजय हो।।

मैं आई थी यहाँ परीक्षा हेतु सुरों से प्रेरित।
सफल हुए तुम मुझकों है इसका उल्लास अपरिमित।।

तेरे गौरव की गाथा जग सदा रहेगा गाता।
नहीं उर्वशी, देती यह आशीष तुम्हारी माता।।

तुम जैसे ही वीर सपूतों पर माँ है बलिहारी।
जुग-जुग जीते रहो देश के अडिग, अनन्य पुजारी।।

जितने भी आदर्श आर्य-संस्कृति के हम सब पाएँ।
तत्व मिलें ग्रहणीय उन्हें अतिश्रद्धा से अपनाएँ।।

सीख महापुरूषों की, अपने लें उतार जीवन में।
उन्नत होगा देश तभी निश्चय समझो निज मन में।।

जय भारत-वसुधा की, जिसका कण-कण अति पावन है।
इस आदर्श आर्य-संस्कृति को बारम्बार नमन है।।