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पाशविक प्रदर्शन / गुण्टूरु शेषेन्द्र शर्मा / टी० महादेव राव

मेरे युद्धों के धुएँ से
पैदा होते हैं कविताओं के मुख।
मेरे गले के जलप्रपात से
बिखर जाते हैं
समय की कीलों पर लटकते कवि।

चलता हूँ तो मेरे क़दम
बादलों पर दौड़ती बिजली की तरह।
उठाऊँ तो मेरा हाथ
जलती अग्निशिखा।
उतारूँ तो हज़ारों किरणें
लटकाई सायं सन्ध्या।

काटकर फेंक दो मेरे हाथ
वे लौटकर मुझसे ही जुड़ जाएँगे।
मेरे तूफ़ानों में
आकाश सारा ही उड़ गया है
एक काग़ज़ के टुकड़े-सा।

अब इन तारों के
झुण्ड का मूल्य क्या है
मेरे मार्ग में?

मैं इतना ही जानता हूँ कि
मानव जीवन
एक पाशविक प्रदर्शनशाला है।
 
मूल तेलुगु से अनुवाद : टी० महादेव राव