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पिताजी / छवि निगम

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घर के बाहरी बरामदे में रहते हैं
फर्नीचर की तरह
वक्त पर झाड़ पोंछ दिए जाते हैं
दाना पानी का वक्त मुक़र्रर
बिलकुल जैसे पिंजरे में लवबर्डस का...
पर क्या करें।
पिताजी डिसिप्लिन्ड नहीं रहते
डिमेंशिया की धुंध में बड़बड़ाते हैं
अम्मा से ख्यालों में जाने क्या बतियाते हैं।
शुगर क्रेटनिन हीमोग्लोबिन बीपी और भी कितनी ही
उफ़ हर पुरानी रिपोर्ट अक्षरशः दोहराते हैं
नाहक याद दिलाते हैं।
सच्ची, कितना भी डिओडोरेंट डालूँ
वो फिनाइल सा महकते हैं।
जाने कैसे तोड़ देते हैं चश्मा अक्सर
दवाइयाँ जान बूझ गुमा देते हैं
ललचाते हैं
बच्चा हुए जाते हैं।
अजनबी तक से मिलने लपकते हैं।
तुम तो साइड वाले गेट से ही आना
सामने का गेट अब हम बन्द रखते हैं।
नहीं मिलता अब कोई केयर टेकर
पिताजी बड़े इनकनवीनिएंट हुए जाते हैं।